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Tuesday, September 18, 2007

De dard wo ki tere jaane ke baad

दे दर्द वो कि तेरे जाने के बाद
कह सकूं कि मर्ज़ बड़ी थी
अच्छा हुआ चली गयी
यूं लूत्फ रहा इश्क में तो
सालों लहुलुहान रहूंगा

दे दर्द वो कि तेरे जाने के बाद
बेफिक्र हो नयी भूल भुल्लैया चुनुं
हर सितम उसका अदा लगे
हर खता उसकी मामूली नज़र आए
दिल तेरे न होने की खुशी मनाये

वो दर्द कैसे दोगी, मुझसे क्यों पूछती हो?

आसान बहुत है, बहुत रस्ते हैं
भाग किसी और से शादी की सोचो
कोई जाती भेद या धन के बहाना निकालो
नहीं तो कह दो की मेरी नाक बड़ी है
या शकल ठीक है, अकल मामूली है

पर यह नौटंकी की, कि न चाहते हुए भी तुम
किसी नवाकूल की बांहों में जा बैठी
और सिलसिला चाहने लगी शादी के बाद का
यह मंज़ूर नहीं मुझे

एक दो किस्से होते ऐसे
तो निभा लेता कमबख्त
यहाँ हालत यह है की
मिसेज़ किसी की, महताब किसी और की,
और मेहनत चाहती हो मेरी हर रात
यह मंज़ूर नहीं मुझे

दे दर्द वो की तेरे जाने के बाद
कह सकूं कि मर्ज़ बड़ी थी
अच्छा हुआ चली गयी.

1 comment:

उन्मुक्त said...

अच्छी कविता है हिन्दी में और भी लिखिये।