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Sunday, February 26, 2012

Moonch Ke Din Chale Gaye (Hindi मूंछ के दिन चले गए)

मूंछ के दिन चले गए

पकड़ने के लिए, झाँकने के लिए
गिरेबान कहाँ से लायें,
पहनावा ही बदल चूका है,
अब पगड़ी न रही
उछल चुकी है, बिक चुकी है,
गमछे तक नहीं,
यदा कदा चमचे, चौकीदार नज़र आते हैं 
मूंछ के दिन चले गए
बस पूँछें नज़र आती हैं |

विलायती लेबल है सिर्फ,
माल अपना है, कपास अपना है,
दर्जी, मंझोला, दलाल, बनिया
और शर्ट-पैंट में कैद कस्टमर
और भूखा जुलाहा अपना है
सोचो ! परदेशी के हक़ में बकते
बिक चुके स्वदेशी के पहरेदार नज़र आते हैं !
मूंछ के दिन चले गए
बस पूँछें नज़र आती हैं |

समझो न तो सिर्फ घास है, 
खेती है, पर जानो तो इश्क है,
सत्ता है, हुनर का ऐलान है,
हस्ती की बस्ती नाक के नीचे
नाक के स्तर और विस्तार का 
हक़ और हिम्मत का निशान है
पर अब मस्तंडे मुन्छ्मुंडे नज़र आते हैं |
मूंछ के दिन चले गए
बस पूँछें नज़र आती हैं |

चिकनाई का घमंड करते हैं
कोई इरादा पर ठहरता नहीं
इन चहरों पर सिर्फ फिसलन हैं
जब सोचने को दाड़ी का सहारा नहीं, 
तो कैसे विचार दिमाग से उतर 
उंगलियों, मुट्ठियों में करतब दिखाएँ? 
बस फोटो में खुश-परेशान नज़र आते हैं |
मूंछ के दिन चले गए
बस पूँछें नज़र आती हैं |

मर्द है तो बालों पे फक्र कर,
सीने पे, बाहों में, फसल कर
उबटन नौटंकी वालों को छोड़
प्राकृतिक यौवन पर फक्र कर
टैगोर, शिवाजी, अकबर, मूसा जैसे
प्रवर्तक, रसिक, पथिक, कवि कहाँ हैं?
बस फ़िल्मी नायको के नक़लचि नज़र आते हैं |
मूंछ के दिन चले गए
बस पूँछें नज़र आती हैं |

खुद को जान, हर रोंगटे को पहचान
कितना मुलायम चर्म नहीं, क्या मर्म है
हर इंच पर पिछलग्गू बनकर
उस्तरा चलना छोड़ सके तो छोड़
पर कोई रोके, तो मुंडवा कर मूंछे, सर,
अपने जज्बे, जिद, जौहर का दर्शन कर
सच इंकलाबी तो भीड़ में दूर से नज़र आते हैं|
पर मूंछ के दिन चले गए
बस पूँछें नज़र आती हैं |

1 comment:

Manish said...

Yaar bahut din se kuch likhne ko mann thaa lekin kuch aisa pada hi nahi ki jis se prerit ho paata... aap se kaafi prerna milti hai. Likhte rahiye!