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Sunday, March 18, 2012

Kavita -- Dharatal Par Na Jadaa Rah


धरातल पर न जड़ा रह
-- विवेक शर्मा 

विकट सदा स्वपन की
राह कठिन, चाह कठिन,
हो मलिन न घाव की
आहूति कभी, कदम बड़ा 
न देख यूँ टुकुर टुकुर
पल यही, पकड़ इसे,
आकाश चढ़, सागर निंगल,
धरातल पर न जड़ा रह |

उग्र रख उम्मीद को,
प्रखर उंगलियाँ, पाँव भी,
क्षुधा जगा उत्कृष्टा की,
सौंदर्य का व्यग्र चाव भी,
न आह छोड़, न पल्लू पकड़,
ग्लानी भुलाए, ग्यानी बन,
आकाश चढ़, सागर निंगल,
धरातल पर न जड़ा रह |

कोशिश कर विशेष की
टिका न रह किनारों पर,
वेग में डुबकी लगा,
चेतना जागृत मंझधार कर,
बाड़ आये, पहाड़ आये,
पार कर, पार कर,
आकाश चढ़, सागर निंगल,
धरातल पर न जड़ा रह |

अधर उधर हैं, अमृत छक,
प्रीत का प्रमाद चख,
कोके के कटाक्ष से
अपनी विद्वता परख
आस कर, समास कर,
जगा, बुझा प्यास कर
आकाश चढ़, सागर निंगल,
धरातल पर न जड़ा रह |

नेता निकल, प्रणेता निकल,
वीरगति का चहेता निकल.
पसलियों को ऐंठन दे
न पगडंडियों पर घुटने रगड़ 
लाक्षाग्रह को पड़ाव समझ
सारथि बन, रण में उतर 
आकाश चढ़, सागर निंगल,
धरातल पर न जड़ा रह |

चुस्कियों में चाव भुला
न बैठ बर्तन की तरह 
धैर्य धैर्य पर धधक धधक 
एक और एक ग्यारह कर
गिर, संभल, पी विष और जी 
मोक्ष न चाह, बस चला चल 
आकाश चढ़, सागर निंगल,
धरातल पर न जड़ा रह |

1 comment:

Anonymous said...

Wah !!