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Saturday, March 31, 2012

Bhopal


भोपाल 

I.

किस भोपाल को अनदेखा करते हो मित्र,
किस भोपाल की आवाज़ को दबाकर
नृत्य-नाटिका रोज़मर्रा में रहते हो लिप्त,
किस भोपाल को भुला कर सोचते हो
कि कल में ना आयेंगे कल के कलंक?

किस भोपाल की लाश ढोते हो मित्र, 
किस भोपाल के ज़ख्मों से लेकर रंग
लिखते हो जस्बाती नारे, किस विस्फोट 
के भोपाल से जागते हो जानकर संसार
के द्वन्द बिखरा सकते हैं सारे स्वपन?

किस भोपाल से जानोगे कि जिस्म मोम
की तरह पिघलता है, सांस सांय सांय करके
डरती-डरती फेफड़ों में जाती है, और कोखें
खंडित होकर जनमती है सनक, जबकि मांस
के लोथड़ों से मोती तलाशते हैं नेता-कारपोरेशन?

किस भोपाल में जीते हो मित्र, यहाँ धूल
में हलाहल है, पानी में डंक, और दंतहीन 
हैं हम, जो कागजों कि गुलामी में भूले हैं,
भोपाल भी एक मौसम में बदल जाया करते हैं,
रह जाते हैं डांचे, निवासी भस्मित हो जाया करते हैं |

***

II.

आज दूर एक भोपाल है, कल चौखट पर आ गया, तो?
भय कश्मीर के खाली मकानों से पलायन करके शरणार्थी
बन आया है दिल्ली की बस्ती में, और वहशत आदिवासियों

के हथगोलों से लिपटी बिखर रही है पूर्व में तो, पश्चिम
में भाषा के नाम पर पत्थरों को आदि मानव जैसे फिर उठाये 
चलते हैं लोग | आज कहीं दूर एक कश्मीर है, माओवाद है,
विवाद है, आतंकवाद है, भाषावाद है, भोपाल है,
कल चौखट पर आ गया तो?

**
III.

खरीदिएगा ज़रूर, यह परिधान बनकर आता है नामी पश्चिमी शहरों से,
वहां कहते हैं सड़कें भी रेशम है, बेगमें भी रेशम है,
न धूल है, न मच्छर हैं, न ही बेतहाशा गरीबी के अवसर हैं,

खरीदिएगा ज़रूर, यह स्वाद है विदेशी, चाकलेटी, स्काच, पिज्जा,
लीजियेगा यह खाद भी, उपवाद बढ़ाएगी, यह बीज रियायत 
में लीजिएगा, भाषा लो जो हर सागर किनारे सुन सकते हो,
भगवन तुम्हारे क्या देते हैं, अपना मसीहा ले आये हैं तुम्हारे घर,
वही जो हमारी सैन्य-शक्ति को अधिकार, और दुनिया भर का व्यापार देता है,
रोज़गार, रेजगार, सभ्यता और प्रगति के मापदंड: गाड़ी, 
टी वि, सब लेना चाहो, इम्पोर्टेड है, लेटेस्ट है, बेस्ट है,
खरीदिएगा ज़रूर |

                        पर कल कोई भोपाल इस प्रगति के मार्ग पर लुड़का 
तो खेद न कीजिएगा, उस विदेशी व्यापारी को खदेड़कर भगा दिया था पहले पुरखों ने,
अब फिर अगर अपना लिया है हम मूर्खों ने, तो फिर से कटती भेड़ का, भीड़ का,
भेद न लीजिएगा, अब व्यापारियों का क्या, उनको तो बस नफ़ा दिखता है,
नादान समझते हैं हमें जिन्हें परदेसी प्रेमियों में रिवाजे-वफ़ा दिखता है,
परहेज़ न कीजिएगा, 
खरीदिएगा ज़रूर |

**

IV.

डकार तक नहीं मारते यह नेतागण, इनके फन फैले हैं इतने कि जनता 
डरती, मरती, बस भारती जाती है इनके प्यालों में रक्त और धन,
पुरखे कहते थे, यथा राजा, तथा प्रजा, पर उनको क्या था पता,
कि हम अपनों में से हमेशा रावण और हरिन्यकश्यप चुन-चुन कर,
बिठाएँगे सत्ता के महत्वपूर्ण आसनों पर|

पर डकार तक नहीं मारते, जबकि भोपाल झुलसे जाते हैं, बिखरे जाते हैं,
अब राजा भोज कि नगरी में जाओ, तो वैसे भी कहाँ धर्म, कर्म से रहा मोह है,
या तो हर कोई नेवला है, या सर्प, या गोह, या मात्र मूषक है, हाँ चूहा है,
हाँ चूहों की भरमार है, इन चूहों को बस झूठन, सड़न, छिटपुट से प्यार है,
और मरते हैं चूहों की मौत तो मरते हैं, पर क्यूँ विषहीन, विकृत नागों के आहार बनते हैं?

अपने जने हैं यह नेता सभी, जो डकार भी नहीं मारते,
और बस निगलते जा रहे हैं, नदियाँ, सडकें, पशु-आहार, धातुएं, फसलें, कंचन,
और हम हैं कि बैठे हैं धरे हाथ पर हाथ, किसी अवतार के लिए आतुर,
किसी महापुरुष की पीठ पर बैठकर, उस गांधी की मूर्तियाँ बना कर
पंछियों की बीट से सजा-सजा कर अपना सच्ची कृतज्ञता दिखाने को आतुर |

** 
V.

अपने काम से काम लो कवि,
न व्यर्थ भोपाल का नाम लो कवि,
कुछ प्रेम-मदिरा की बात करो,
न राजनीति में भाग लो कवि |

कितने सर रोज़ झुकते हैं,
कितने नोट चुपचाप सिरकते हैं,
और कितनी जुबानें लुप्त हो जाती हैं?
अपनी कलम को लगाम दो कवि |

हो हुआ उसको भुला दो कवि,
भविष्य का सुन्दर सपना गड़ो,
जीर्ण को छोड़ उतीर्ण को पकड़ो,
न यूँ समय बर्बाद करो कवि |

ध्यान धरेगा तो हर नगर भोपाल
तेरे बाहर-भीतर भी भोपाल नज़र आयेगा,
क्यूँ चाहता है बावला बनना कवि,
हुश! रह खुश बन गांधी का बन्दर कवि |
**
VI.

होनी को कौन टाल सकता है, क्यूँ भई?
अब हो गयी दुर्घटना, कभी भोपाल, कभी पटना,
जिसमें धेले की भी अकल है जानता है, कर्मों का फल है,
जब पेट में चुल्हा जलाने के लाले हैं,
मरते रोज़ कितने बच्चे-जवान गुणवाले हैं,
तुम कैसे कह देते हो दो-चार को दोषी ठहराओ,
हमारी स्तिथि को स्वीकार लो भई,

होनी को कौन टाल सकता है भई?
कुछ नहीं बदला, कई भौंक गए, कई दहाड़ गए,
कई राजधानी गए, कुछ विदेश, कुछ सब त्याग पहाड़ गए,
तुम विद्यार्थी हो, गलत अर्थी के पीछे लगे हो,
तुम युवा हो, क्यूँ यौवन के मधुवन से मुंह छुपाके चले हो?
अब अरबों की बात ठहरी, छोटी-मोटी बात नहीं,
पाठशाला में कोई साला कुछ सुनता नहीं, सीखता नहीं,
बात करते हो टुकड़ों, फैंके हुए चिथड़ों पर पलने वाले, 
या नामी चोर नेताओं-अफसरों की | 

कुछ नहीं बदला | भूल जाओ की बदलेगा, वो भी तुम्हारे करने से |
जाओ अपने कोमल हाथों को पहले हकीकत के मैदाओं में
माटी और पत्थर से छील-चोटिल कर राह बनाना सीखो |
पहले भुलावों की फसलों से भरते पेटों में
सत्य की झुलसा-देने वाली भूख जगाना सीखो
रक्त को रेत में टपक मिट जाने वाली बूँद नहीं
इतिहास पर मोहर बन सकने वाली
स्याही बनाना सीखो |

पर होनी को कौन ताल सकता है भई?
होलिका की गोद में खुद को कहाँ 
रोज़ रोज़ कोई डाल सकता है भई?

 **

VII.

चर्र चर्र जूती की चर्र चर्र 
पाँव के नीचे रहती है माना
पर जब यह काटने लगती है
बोलने लगती है चर्र चर्र
तो राईस हो या पहलवान
लंगड़ा कर देती है |

**

VIII.

नारे नहीं लगायें हम 

आखिर कब तक चिल्लायेंगे हम?
जिनके कान में मोम की जगह सीसा पड़ा है,
उनको कैसे मोमबत्ती की दुर्दशा दिखायेंगे हम?


***

IX.

न ठग मुझे न ठग

भूल न, ग्रास किसी का छीन
तिजोरियां भर रहा तू 
भय कर, विस्फोट बनकर 
उठेगा जब क्रोध जनता का 
न नींद पायेगा तेरा कोई बिस्तर
अरे काले धन में कैसी बरकत?
न ठग मुझे न ठग |

खोटा तेरा प्यार, तेरा संसार,
तेरा व्यवहार, खोटा तेरा दंम्भ,
न मुट्ठी में अंगार धर, डर
तेरे अंतर में घुल रहा गरल
तुझको ही जाएगा निंगल 
अरे झूठों से कभी तो मुठभेड़ कर?
न ठग मुझे न ठग |

फ़िक्र फाको न नहीं, नफों न नहीं
फ़िक्र आहतों का नहीं, भारतों का नहीं,
फ़िक्र क्यूँ किन्ही श्लोकों-आयातों का नहीं,
मरघट बना भोपाल, जमुना-गंगा 
पावक तीर्थ से पावन-तृष्णा हो गए, 
अरे क्यूँ बेफिक्र है ऐसी वहशत?
न ठग मुझे न ठग |

छोड़ कर ही जाएगा | क्या 
नोट, क्या वोट, क्या चोट, 
छोड़ कर ही जाएगा 
यह खाट, यह ठाट, यह बाट,
कब तक बटोरेगा रेत, धातु, कागज़,
अरे मृत्यु को खिलायेगा कैसे रिश्वत?
न ठग मुझे न ठग |

***

X.

हूक उठेगी एक ऐसी हूक उठेगी
थर-थर कांपते कंस को बालक मल्लयुद्ध
में धाराशाही कर, छुड़ा ले जायेंगे अपने 
भविष्य के लिए स्वतन्त्र जीवन

हूक उठेगी एक ऐसी हूक उठेगी
भोपाल भीगे पक्षी की तरह तप कर
फिर सूखे, सक्षम पंख लिए उड़ 
अपने घोंसलों में चोंच खोली खुशियाँ पायेगा

हूक उठेगी एक ऐसी हूक उठेगी
मुलजिम गठरियाँ बांधे निकल जायेंगे
हज, तीरथ पर, ग्लानी के घाव लिए
क्षमा, मुक्ति का चाव लिए

हूक उठेगी एक ऐसी हूक उठेगी
मुर्दा-सी जनता नारे लगाती पहुंचेगी 
अफसरों, नताओं के घर और टटोलेगी
उनकी चर्बी के तहों की भ्रष्ट गांठें 

हूक उठेगी एक ऐसी हूक उठेगी
बच्चे इंकार के कदम लेकर जायेंगे घर
पूछेंगे हर डकार से हराम का हिसाब
और भूख हड़ताल करेंगे अपनी चौखटों पर

हूक उठेगी एक ऐसी हूक उठेगी
नंगे पैरों से चल कर बाप मन्नतें मांगेंगे
कि उनको बेटियों दे, और जो मांगे दहेज़,
या करे बेटियों से परहेज़, उनको बेड़ियाँ दे

हूक उठेगी एक ऐसी हूक उठेगी
हर ज़र्रा पूछेगा तुमसे क्या सोच
क्या कर्म, क्या गुनाह, क्या पुण्य
क्या क्यूँ कब कौन तुम, क्यूँ मौन तुम?

An early version, recorded at a lunch meeting, was posted on youtube:
Part 1 & 2
http://www.youtube.com/watch?v=k4sDqJR6qzw
Part 3 & 4
http://www.youtube.com/watch?v=w32SeLqCtTg

Friday, March 30, 2012

Your Kamuk Eyes


I am an ancient snake, wood, flute, tongue —
Turned to bronze asp, silent ash, by your eyes.

Tremors of smiles on your lips unsettle me;
For I hear the oceans surge, crash in your eyes.

Dust-storms, forest-fires, tsunamis, apocalypse —
Created, abated by you, my Mahesh, by your eyes.

Hindi poets immortalized lotus-eyed women.
I see their similes life-size, pratyaksh in your eyes!

Sketched in kohl by Goddess Rati,
I see every Kamasutra passion flash in your eyes.

Otherwise wanton like dogs of a red-light district —
How many wag tales of devotion, confess before your eyes?

Who needs hashish, opium, wine, tea to incite angst?
Revolutions arise by an askance, an address of your eyes.

Even they who know quarks and event horizons,
Are perplexed metaphor-less before the abyss: your eyes.

Mist, myth, magic, maya, immortality, motherhood —
I see unfurl … unfold … unwind afresh in your eyes.

For you, Kavi Vivek can forsake wealth, fame, even divinity.
What are these, but trifles for him who can possess your eyes?

Version 2: Here is an alternative to the closing couplet of "Your Kamuck Eyes."

For you, Kavi Vivek can forsake wealth, fame, even divinity.
Bah! These are but trifles for him who can possess your eyes.
Published first in 2012, Issue One of The Ghazal Page

Sunday, March 18, 2012

Kavita -- Dharatal Par Na Jadaa Rah


धरातल पर न जड़ा रह
-- विवेक शर्मा 

विकट सदा स्वपन की
राह कठिन, चाह कठिन,
हो मलिन न घाव की
आहूति कभी, कदम बड़ा 
न देख यूँ टुकुर टुकुर
पल यही, पकड़ इसे,
आकाश चढ़, सागर निंगल,
धरातल पर न जड़ा रह |

उग्र रख उम्मीद को,
प्रखर उंगलियाँ, पाँव भी,
क्षुधा जगा उत्कृष्टा की,
सौंदर्य का व्यग्र चाव भी,
न आह छोड़, न पल्लू पकड़,
ग्लानी भुलाए, ग्यानी बन,
आकाश चढ़, सागर निंगल,
धरातल पर न जड़ा रह |

कोशिश कर विशेष की
टिका न रह किनारों पर,
वेग में डुबकी लगा,
चेतना जागृत मंझधार कर,
बाड़ आये, पहाड़ आये,
पार कर, पार कर,
आकाश चढ़, सागर निंगल,
धरातल पर न जड़ा रह |

अधर उधर हैं, अमृत छक,
प्रीत का प्रमाद चख,
कोके के कटाक्ष से
अपनी विद्वता परख
आस कर, समास कर,
जगा, बुझा प्यास कर
आकाश चढ़, सागर निंगल,
धरातल पर न जड़ा रह |

नेता निकल, प्रणेता निकल,
वीरगति का चहेता निकल.
पसलियों को ऐंठन दे
न पगडंडियों पर घुटने रगड़ 
लाक्षाग्रह को पड़ाव समझ
सारथि बन, रण में उतर 
आकाश चढ़, सागर निंगल,
धरातल पर न जड़ा रह |

चुस्कियों में चाव भुला
न बैठ बर्तन की तरह 
धैर्य धैर्य पर धधक धधक 
एक और एक ग्यारह कर
गिर, संभल, पी विष और जी 
मोक्ष न चाह, बस चला चल 
आकाश चढ़, सागर निंगल,
धरातल पर न जड़ा रह |

Sunday, March 11, 2012

Poetry of the Waste


Over the pile of rubbish, sits a two year old
shrieking with glee as his hands toss egg-shells,
toffee wrappers, orange peels, cans of coke.
The wealth of textures, colors, smells
differs from the grumbling sensation he shares
with seven others in their one-room home.

In the pile of rubbish, a seven year old forages for buns,
half-eaten bananas, unfinished soda drinks & thanks
heavens for abundance. The teenager hunts
for sacks, shirts, torn socks, handkerchiefs, underwear, rags.
These tatters of overused linen that fill her plastic bags
her mother will sew into blankets,
or mattresses or jholas or garments.

Within the pile of rubbish are books, bags, pens, gaskets,
utensils, beer bottles, toothbrushes, shoes, combs, three-legged
chairs, electronic goods, scrap metal, love-letters, baskets,
pencils, newspapers, and their father cannot stop lecturing
about the poetry of the waste, of lotuses in the muck,
of a famous future that he dreams of unearthing
for the children in that very garbage-heap one day.


--

First appeared in Indian Review, Spring 2012