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Sunday, May 12, 2013

Maa ki Buni Swaaterein -- माँ की बुनी स्वाटरें

माँ की बुनी स्वाटरें  
      - विवेक शर्मा

मासिक तनख्वाह मिलती, पर हफ्ते भर में
फाकों की फरहिस्त छुपाने के लिए माँ
स्वाटरें बुन-बुन कर बेचा करती |

एक अफसर की बीबी के हाथ 
इमानदारी की बस एक अंगूठी आई 
और बर्तनों की सफाई, कपड़ों की धुलाई 
करते हुए भी, झाग तक का हिसाब करके
फाकों की फरहिस्त छुपाने के लिए माँ
रद्दी के बदले मिले नोटों से ऊन खरीद 
स्वाटरें बुन-बुन कर बेचा करती |

शिक्षा के स्वपन अधूरे लिए जब मेरी माँ
एक पिताविहीन चौथे दर्जे के मुलाजिम 
से ब्याही, तो नाना बड़ी संवेदना से बोले:
लड़का गरीब है, होनहार है, होशियार है,
अब तेरे संस्कार उभरेंगे, तो दोनों उभरोगे |
पिता ने कलर्की की, वनस्पति, पुष्प-फल विभाग,
तुइशन पढ़ाई और सुबह से नींद चुराकर यदा-कदा
लिख पढ़ कर, एक दिन प्रदेशस्तर 
इम्तिहानों में अव्वल आकर
खुद को अफसर कर लिया, 
और हर सीड़ी की संगिनी 
फाकों की फरहिस्त छुपाने के लिए माँ
स्वाटरें बुन-बुन कर बेचा करती |

मैं आया निस्स्वर, हाँ, 
न रुदन, न स्मित-रेखा, 
न सांस ही साथ लाया, 
यह दिए और सब स्वपन भी तो
दोनों ने हर यत्न से मुझको दिए 
सब साधन, जीवन | 
भाइयों और बहनों की पढ़ाई, विवाह 
सब थे पिता ने धर्म समझे, 
सो सहधर्मिणी स्वयं की सारी कामनाएं 
स्वाह करके, खुद फाकों में निर्वाह करके,
निभाती गयी फ़र्ज़ जो मेरे पिता ने धर्म समझे,
और दोनों ने मेरे लिए चाहे 
संघर्ष से मिल सकने वाले सारे ध्येय,
और किशोर भी नहीं था जब जान चुका था 
मेरी हर कृति, उन्नति का पुष्प 
उस व्रतधारिणी की समूची आराधना 
और पिता के लहू-पसीने से पल्लवित हुआ है, 
किशोर भी नहीं था जब जान चुका था 
फाकों की फरहिस्त छुपाने के लिए माँ
अनेकों रंगों, डिजाइनों, फैशनों में तैयार
स्वाटरें बुन-बुन कर बेचा करती |

वर्ष धीरे धीरे ढलते है, पर किशोर युवा होते ही
बहुत तीव्रता से घर से दूर निकलते हैं,
मैं परीक्षाओं के हल सैंकड़ो सवाल करके 
होशियार निकला घर से कुछ कर दिखाने के विचार करके
उधर पिता ने अपनी पीड़ी और उसके पहले के प्रति सब कृत्य 
रीती-रिवाज़ से मुताबिक़ अपनी तनख्वाह के अधिक
माँ की बंध मुट्ठी विश्वास के सहारे पूरे कर दिए
मैं यूँ तो निकला था घर से कुछ कर दिखाने के विचार करके
पर मोह मुझे था खींच रहा और मैं, स्वार्थी, एक कामिनी के
जीह्वा से सस्वर हुए हर इच्छित खर्च को 
जीत कर कोई नवाबी ख्याति क्या पाना चाहता था ?
फरवरी का ज्वर बड़ा, बीते मार्च, सावन और सितम्बर
फिर कार्तिक आया, कोहरा जाने छाया कि हटा 
जब आधी-बाजू वाला बुना स्वाटर पहनते ही 
स्मरण हो आया कैसे आजीवन अब तक 
फाकों की फरहिस्त छुपाने के लिए माँ
बिना थके, बिना रुके, बिना किसी से सुने-कहे 
स्वाटरें बुन-बुन कर बेचा करती |

युवा बहुत तीव्रता से घर से दूर निकलते हैं,
मैं भी गया हूँ दूर इतना के इन जिलों में
हाथों से बुनकर पहने जाने वाले स्वटरों का रिवाज़ नहीं
पर याद करता हूँ कि माँ के हाथों को था आराम नहीं, 
अब बुनाई नहीं है, कोई कमी नहीं है, पर माँ के निकट
रह पाना इस सदी में आसान नहीं, सो हर वर्ष
सर्दी की तहों से खींच कर एक काला और एक भूरा
एक पूरी बाजू का, एक आधी का, हाँ, यह वही भूरा है
जो मेरे कालेज के आखिरी वर्ष में माँ ने जब बुना 
पिता को भा गया, माँ का हृदय उन दिनों
था हर बात पर बाप-बेटे के सिल-बट्टे में पिसते 
घिसते रिसते अरमानों और ख्यालों की तरह,
पर मैं देश से दूर चला, तो चुपचाप पिता ने 
एक तह कर तनाव को उस घर से दूर कर दिया,
और मैं कर आया प्रण यह कि जब श्रेय से
पूज्य कर दूंगा उस दंपत्ति की स्मृति को,
हाँ आधी बाजू का यह भूरा स्वेटर पहन 
अकसर उन उधेड़-बुनों का विस्मरण करता हूँ,
कैसे फाकों की फरहिस्त छुपाने के लिए माँ
स्वाटरें बुन-बुन कर बेचा करती |

वाक्य हैं बस, वाक्य हैं, मात्र शब्द, 
रोगशय्या पर माँ है, बेटा कहाँ है 
हाथों में माँ के बस ऊन के कारवां 
के निशान हैं, बेटा कहाँ है,  
क्या वह अपने माता पिता की सच्ची 
संतान है? बेटा कहाँ है?
दूर जाना तय था यह जन्म से ही, क्यूंकि बेटा
एक संघर्ष की ही तो संतान है
अब नए जलूसों में धक्के खाता अरमान है,
पर एक शुद्ध सदा उसके मन में भावना है,
ईमान की सब देशों में रहती कोई माँ है
जिसके हाथों में बस ऊन के कारवां हैं 
दर्ज़नों को देती वह स्नेह की ऊष्मा है,
गम-चुप गलियों में उसका छुपा ब्यान है,
ईमान की सब देशों में रहती कोई माँ है
फाकों की फरहिस्त छुपाने के लिए माँ
स्वाटरें बुन-बुन कर बेचा करती |

सात सौ सत्तासी स्वाटरें जो अनेकों घरों में
बिखरीं हैं, मैं तलाशने निकला हूँ,
यही मेरे बचपन की स्तुतियाँ हैं,
यही मेरे यौवन की आयतें हैं,
सात सौ सत्तासी स्वाटरें जो अनेकों घरों में
बिखरीं हैं, मेरी माँ की सजीव ख्वाईशें हैं,
सात सौ सत्तासी स्वटरों की ऊन के हर रेशे में
ममता के स्पर्श की, माँ के संकल्प की 
छाप है, प्रतिध्वनी है, जयघोष है, 
ऐसा मेरे देश की विवशता है, संस्कार है,
यह मेरा नहीं कई बेटों का इतिहास है,
फाकों की फरहिस्त छुपाने के लिए माँ
स्वाटरें बुन-बुन कर बेचा करती |

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२० १ १  में रचित 

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