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Friday, June 05, 2009

Niwalon par nibandh (Hindi/poem)

मैं निवालों पर निबंध हूँ

मैं निवालों पर निबंध हूँ,
प्रेयसी मेरी भूख रही है
अटल रही है, अटूट रही है,
इस उदर की ज्वाला से ही
झुलसी नीयत स्पष्ट रही है,

हर साँस को कर्म से, कठिनाई से
पाया है मैंने,
हर नींद में स्वप्न्हीन विराम
पाया है मैंने,

मैं ही पथिक, मैं ही पथ हीन
मैं ही पथ बनाता भी हूँ,
इन कारखानों, करघों को पूजता
मैं ही इन्हें चलाता भी हूँ,
धूल से धुला मैं ही
धूल में मिला मैं ही
गर्द से गुल बनता और बनाता मैं हूँ,

मैं ही घाटों पर पीटता वस्त्र
मैं ही वस्त्र-हीन,
मैं ही फुटपाथों पर लेटता,
बिस्तरों को सजाता मैं ही,
मैइली चादरों को ओड़ कर
तन को छुपाता मैं ही,

मैं ही तो खेतों में बीज-सा धँसता,
पसीने का सावन उढेलता,
और मेघों का प्यासा मैं ही,

और मेरी पूँजी, बस पाँच उंगलियाँ,
एक पेट, थोड़ी नींद, कुछ किस्से
और एक ज़िंदगी
जो रोज़ नई चुनौती है |

Wednesday, June 03, 2009

Hindi Maa (हिंदी माँ ) (Poem/Hindi)

हिंदी माँ

कितनी बार माँ मैंने देखा है तुमको संकोच में,
कब किससे, कहूँ, क्या, कब, कैसे, की सोच में,
अपने ही घर की बैठक में गुमसुम तुम,
परोस रही चाय-पकौड़ी अंग्रेजी मेज पर,
और खाली प्यालों में खोजती हस्ती अपनी,
जो बेजुबान हो गयी है अपने ही देश में |

और कितनी ही बार माँ, बचपन में मैं शर्मसार,
सीखाना चाहता था तुमको विदेशी वार्ता-व्यवहार,
तुम्हारी गोद में हँसा रोया, पाया खोया, सब मैंने,
और तुमसे ही अर्थ, धर्म, कर्म, मोह, पथ पाया मैंने,
और तुमको ही ठुकरा आया कहकर पिछड़ी, व्यर्थ,
जो बेजुबान हो गयी है अपने ही देश में |

माँ, अब भ्रमणों, वहमों, उम्र, अध्यययन करके है जाना मैंने,
कैसे सालों सौतेली के सामने था सामान्य, असक्षम तुमको माना मैंने,
तुम्हारी लोरियों की ममता, तुम्हारे सरल संवादों का साहित्य,
तुम्हारी आत्मयिता की महक जिसे किया बरसों अनदेखा मैंने,
आ गया हूँ वापिस सुनने, सुनाने तेरी उसी आवाज़ को,
जो बेजुबान हो गयी है, अपने ही देश में |

PS: Read in Harvard, 12th Annual Indian Poetry Reading, May 2009
Also appears in http://aakhar.org/