विद्या को आवाज़ में खनकती हलकी-सी, किन्तु मौजूद, एक कटुता सुनाई दी: "समझ भी तो आये आप क्या कह रहे है?" उसने सहज भाव से कहना चाहा |
और आह भरके शायद सोचा: "काश आप भी अंग्रेजी में विद्यावान होते ! यह असंगत हिंदी बोलते-बोलते आप जीवन में आगे कैसे बड़ पायेंगे |"
वहाँ वो मुझसे पुराने किस्म के व्यक्ति से कुछ खिन्न है, यहाँ मैं भी इन आधुनिक भारत के असली गंवार "इन शहरी विदेशी अंग्रेजी-भाषी" लोगों से काफी अप्रसन्न हूँ | आप सोचेंगे गंवार कैसे हुए भला? अरे भाई, गंवार तो उन्हें ही कहते हैं न जो भाषा का प्रयोग न जानें? अब आपको सुनने में अच्छा नहीं लगा, पर यथार्थ किसी को भाये न भाये, यथार्थ अपने परिधान और सन्दर्भ नहीं बदल सकता | पर विद्या सुन्दर भी है और यूँ देखा जाए तो हर तरीके से गुणी भी है | सामान्य ज्ञान की बात हो, खबरों के ज़िक्र हो, राजनीतिक मसला हो, महिला-उत्थान का विषय हो या विश्व साहित्य की गोष्टी हो, हमारी विद्या एक कँवल, एक केंद्रबिंदु, एक स्मित-रेखा जो अखियों और होंठों ही नहीं, हृदय में भी फूटी हो, एक सुरीली संतूर-धवनी-सी मेरे और शायद सभी के मन-मस्तिष्क-हृदय में उतर आती है | कोई और होता तो गंवार कह देता, कोई और होती तो उसे निरा मूरख, पाखंडी कह देता, भुला देता, पर विद्या तो मेरी कितनी ही रचनाओं कि प्रेरणा भी है | मैं भारतीय संस्कृति और साहित्य के बेजोड़ उदाहरणों को लेकर निकलता हूँ, कितनी सुन्दर, आतुर, प्रेमपूर्ण पंक्तियाँ चुन-चुन कर एक कविता का निर्माण करता हूँ, और कितनी तत्परता, कितने आत्मुल्लास से विद्या से कहता हूँ, पर मेरे शब्द, मेरे अर्थ, मेरा मोह, मेरा अस्तित्व सब धूमिल हो जाते हैं, उसकी अधूरी शिक्षा में प्यार कि भिक्षा से भी वंचित हो जाते हैं | यूँ भी मुझे भिक्षा नहीं चाहिए, अधिकार चाहिए |
"कहाँ खो गए? देखा, तुम भी अपनी ही पंक्तियों का अर्थ खोजने लगे | मुझे पता है, तुम्हें मुझे उकसाने के लिए ही ऐसे, क्या कहते हैं उन्हें, कलिष्ट शब्द बिखराने होते हैं |" विद्या ने कुछ रूठने का, कुछ उदासी का उपक्रम किया | प्रेमपाश में बंधा मैं, एक भाषा का उपासक तो हूँ, पर इतना भी शायद नहीं कि विद्या को ही त्याग दूँ | हिंदी के प्रति इसकी सोच को कैसे बदलूँ? अकेले ही वो इस राह नहीं गयी, मेरा सारा राष्ट्र ही पथभ्रमित है |
"सोच रहा हूँ क्या सचमुच मेरा हिन्दीप्रेम एक पागलपन है? बुरा न मानो, पर यह बात मुझे हमेशा चुभती रहती है | मेरी कविताओं का क्या है, कोई उन्हें पढ़े न पढ़े, समझे न समझे, मुझे लिखने की लय है, मैं तो लिखूंगा ही | पर हिंदी की बात मुझे बहुत खटकती है ? क्या तुम नहीं समझती कि मातृभाषा और संस्कृत भारतीय मूल्यों, परिवेशों, शास्त्रों, व्यवहारिक और धार्मिक रीतियों और तर्कों को समझने, परखने, जीने के लिए आवश्यक है ?"
विद्या ने काफी गंभीरता से मेरी ओर देखा | कविताओं में छेड़े प्रसंगों से, अपने व्यवहार से, उसके साथ बीताये समय से या मेरी आँखों में भरे-भरे भवसागर में उसने अपने प्रति छलकता स्नेह तो कबका जांच लिया है | पर वह एक समझदार लड़की है, और मैं भी कुलीन पुरुष हूँ, सो प्रेम के गाड़ी पटरी पर पहाड़ी रेल सी, जैसी कालका-से-शिमला को जाती है, धीरे-धीरे, थमते-रुकते चल रही है | अपने हाथ पर चेहरे को टिका, मेज़ के उस तरफ से, मेरी ओर तन्मयता से देखते हुए, एक भौं को हलके से उठा कर, उसने सर तो थोड़ा हिला कर, जिससे उसके नीले पत्थर वाले झुमके हिलने लगे, उसने एक नाटक की अभिनेत्री की तरह मुझसे पूछा:"क्या अंग्रेजी की विस्तृत शब्दावली भारतीय सोच, संस्कृति और सभ्यता से जुड़े पहलुओं को उजागर करने वाले सार्थक शब्दों से लैस नहीं है? आइये इस मुद्दे पर कुछ विचार करें |"
मैं ठहरा कालिदास, बाणभट्ट, शकेस्पियर, ऑस्कर वाइल्ड, शाव, और रामलीला में बीस साल से हनुमान बनने वाले चाचुजी का चेला| विद्या ने इशारा भर किया, और दूरदर्शन के किसी संचालक की तरह, मैंने भी अपनी आकाशवाणी केन्द्रों वाली आवाज़ जिसपर विद्या-सी कई कन्यायें गर्दन मोड़-मोड़ कर मेरी और देखती हैं में कहना शुरू किया : "आइये! घर के भीतर चलिए | यह अंगना है, वो तुलसी है, और ये किवाड़ के पहले की देहलीज़ है | घर-आँगन के लिए, चुल्हा-चौकी के लिए, तुलसी-दीपक के लिए, कौन से पाश्चात्य शब्द चुनुं? देखिये वो शब्द कहियेगा जो विदेशी लोग भी जानते हों, और जिनका मूलभूत अर्थ किसी और सन्दर्भ से भी न जुड़ा हो | सामने दादी, बुआ, ताई और भतीजा बैठा है | लो कर लो अनुवाद, और चुने शब्दों में रिश्तों की गहराई और गूड़ता दिखाओ तो जानूं | जन्म से लेकर मरण तक, मुंडन से लेकर लगन तक, श्राद कहो, प्रसाद कहो, या लू कि लपटों में झुलसी सांझ कहो, फेरों की रीतियाँ कहो, रामलीला की स्मृतियाँ कहो, और भगवत की अनुभितियाँ कहो | लोग कहते हैं कि वो अंग्रेजी नहीं जानते, इसलिए बेबस हो जाते हैं, बेजुबान हो जाते हैं, और मैं कहता हूँ कि अंग्रेजी की राह में मैं भारतीय धर्म, कर्म, योग, त्याग, प्रीत, परिवार, भोजन, स्वपन, भजन, भगवन के वर्णन, चिंतन, स्मरण, संबोधन और संकलन मैं खुद को असमर्थ पाता हूँ | अग्रेज़ी भाषा में हर पाश्चात्य अनुभूति, संस्कृति, इसाई धर्म, आहार-व्यवहार के लिए उपयुक्त और अनेकों शब्द हैं | इतने शब्द हैं कि ज़र्मन, फ्रेंच, स्पनिश, रुसी, इटालियन, और अन्य यूरोपी भाषायों से गतागत अनुवाद हो सकता है, संवाद हो सकता हैं | परन्तु हमारे संस्कार और संधर्भ पाश्चात्य या पश्चिमी शिक्षा और ज्ञान की परिभाषाओं, परिमाणों, प्रस्तुतीकरण और प्रकारों के परे है | यदि आप यह सोच रहे हैं कि मेरा लेख कठिन शब्दों से भरा जा रहा है तो जानिये यह भी कि अपनी भाषा में भी सटीक तर्क-वितर्क देने के लिए, तात्पर्य-औचित्य समझाने के लिए उपयुक्त शब्दों की सम्पूर्ण व्यवस्था है | जिस प्रकार हम अंग्रेजी भाषा में ज्ञान बढाने के लिए तत्पर रहते हैं, उसी प्रकार अगर अपनी भाषा में भी अभिरुचि दिखायेंगे तो यही भाषा मस्तिष्क के धुन्दले संवादों, अपवादों को प्रकट करने में, विज्ञानं और विशेष शब्दावली में लिखे समस्त विषयों को अभिव्यक्त करने के लिए उपयुक्त न होगी? अंग्रेजी न जानने वालों को जो जो पिछड़ा और गंवार कहते, समझते हैं, उनसे मैं पूछता हूँ, तुम कहाँ के विद्यावान हो?"
मैं नाट्यशास्त्र में शायद अनाड़ी हूँ | बोलना शुरू किया तो कुछ भी कह गया | विद्या की हंसी जाती रही | भौहें अब माथे पर रेखाएं उकेर मुझे धमकाने लगी | ययायक जब मेरा ध्यान उन पर गया, तो बिजली जाने पर ज्यूँ रेडियो टाएँ बोल जाता है, वैसे ही मेरी पंक्ति आकाश में उड़ते-उड़ते विद्या के मोहबाण से बिंध कर, फिर धरातल पर आ पड़ी|
"यह टिपण्णी जनाब मेरे लिए कर रहे थे? खेल ही खेल में यह विष बाण चलाने लगे आप? यह भी कोई तरीका है भला? रखिये अपनी कविता | माना मुझे इतने शब्द नहीं आते, पर जानो, कि जो सीखा, सीखाया गया, उसमें कभी कमी नहीं दिखाई है मैंने |" वह रुष्ट हुई और मेरी सारी आन्दोलनकारी प्रवृत्तियां फ़ुस हो गयी | पहली बार हिम्मत कर मैंने अपना हाथ बड़ा के उसके हाथ पर रख दीया, और रुकते-थमते, पर बड़ी सहृदय और मधुर, प्रेमातुर भाव से कह उठा - "तुम तो स्वयं मेरे काव्य, मेरी कल्पना का आधारबोध हो | मेरे जीवन में आकर तुमने मुझे उस नींद से जगाया है जिसमें घुल कर मैं अपने अर्थों, राहों से वंचित था | भ्रम यह भी है कि सिर्फ हिंदी, सिर्फ भारतीय संस्कृति-सभ्यता में सत्य है, सत्मार्ग है, और भ्रम यह भी है कि बिना हिंदी-संस्कृत के परिष्कृत, उचित, ज्ञान के हम सभी भारतीय जी सकते हैं | तुमसे मिलने से पहले विद्या मैं सिर्फ कटुता से उन दोस्तों को देखता था जो मेरी रचनाओं को न सुनते थे, न समझ सकते थे; पर अब जानता हूँ कि इसमें उनका कसूर सिर्फ इतना है कि एक उम्र के बाद भी वो जान नहीं पाए है कि चाहे कोई कितनी दुनिया को जान ले, पर खुद को न जाना तो कुछ न जाना | शायद जब तक हम विद्वता को मातृभाषा में भी महारत से नहीं जोड़ेंगे, हम पूर्ण विकास और तुष्टि से, सुख के साहित्य से, शास्त्रों में बताई गई संतुष्टि की हर रीती से, अपनी मात्री से, अपनी गति से अनभिज्ञ, यानी अपने ही अस्तित्व, तत्त्व से, अपनी रियल एक्सिस्तेंस से अनजान रहेंगे |"
मैंने देखा कि स्मित-रेखा सुबह के प्रकाश की तरह विद्या के अंतर्मन से निकल चेहरे से फूटने को तैयार हो रही है | "चटाक", विद्या ने दुसरे हाथ से मेरे हाथ पर एक चांटा जड़ दीया, और कहा "मौके पर चौका मार गए? यह अंग्रेजी के शब्द बीच में डालने कि ज़रूरत नहीं है, मुझे तुमने जो कहा समझ आ गया | सोनिया की तरह बोलूं कि मुझे सब चमक गया | एक शाश्त्र वास्त्र बाद में समझाना, और किसी अच्छे मौके पर, किसी ढंग की कविता से जाओ, किसी और को रिझाना | फिलहाल बिल दो, और मुझे देर हो रही है, घर तक पहुंचाने का प्रोग्राम, मेरा मतलब, कार्यक्रम शुरू करो |" मैं हंसने लगा; बैरे को बीस रूपये और ऊपर दे दिए, और जब मोटरसाइकल पर विद्या आ बैठी, तो दूर मुझे तिरछा चाँद दिखाई दीया| मैंने मुस्का के अपने पुराने मित्र से मानो कहा: "आज बात हो गयी | अब के बाद असली प्रेम कथा-कविता की रचना होगी |"