आड़े-तिरछे हो कर हम
आते हैं परदेश
झुग्गी-झौंपड़ी में रहते हैं
पर कहते उसे विशेष
उदासी चाहे दिल में हो
फोन पे कौन सुनाये
दूर के दर्द दिखाई के
हम पूछें क्या उपाय
अंग्रेजी चाहे आती हो
पर गैहुआं अपना रंग
सोचा छूटेगा जाती-भेद
पर गैहुआं अपना रंग
थाली भर का खाया पर
पेट रहा खाली
तड़का पूरा मारा पर
स्वाद रहा फाकी
माटी से यह कैसा मोह
माटी है माटी
गाँव में भूखे सो
धूल ही थी चाटी
जवानी बीती फुर्ती से
बुड़ापा कलंक
न गाँव न घराती हैं
एकलो सत्संग
आड़े-तिरछे हो कर हम
आते हैं परदेश
जीवन भर मेहनत कर
पाते हैं क्लेश
महँगा यहाँ डाक्टर है
बिजी हैं माय सन
दुनिया भर के कर्जों का
टेक इस इजी माय सन
कौन रहा वहाँ पर है
तेरा जहाँ यहाँ पर है
पर माटी करे पुकार
पर माटी करे दुलार
माटी तो माँ सी है
गोद में ले बिठाए
चाहे कैसे हों दुःख-दोष
पल में दे भुलाए
जीकर के फ़ौरन में
क्या पाए तूने सुख
गर देश में रहता
चुगता वहाँ भी दुःख
दुःख मानवीय दशा है
कुर्ता पहनो चाहे कोट
खानी होंगी चोट पे चोट
फ्रेंची पहनो चाहे लंगोट
दूर के ढोल सुहावने
दूर से फूहड़ लगे हूर
प्रतिबिम्ब कैसे देखें
अक्खियों में है धूड़
अकल आई देर से
बुड्डा हुआ बुद्धा
विदेशी ठाठ त्याग के
काठ पर बैठा
ज्ञान बड़ा घाघ है
ज्ञान से रहियो सतर्क
अच्छे खासे तर्क दे
करदे स्वर्ग - नरक
लगाये पावडर क्रीम पर
रंग बदले न ढंग
कब चूने से नहाये के
हूर बनयो बदरंक
हल्दी के रंग और स्वाद से
पीछा कैसे छुड़ाय
जे जेनेटिक रोग-दोष
जनम से मिल जाए
विलायती खा, विलायती पी,
चाहे विलायती से ब्याह जा,
पर जब माटी पुकारे अंत काल
वापिस गाँव-घर आ जा
ज्यादा नौस्टेलजिक करेगी
खाएगी चपेड़
दिन भर ताना-बाना बुना
न रात में उधेड़
बेटा जिद न किया कर
समझाकर हम हैं अलग
नागरिक हैं हम भी बेशक
पर गैहुआं अपना रंग
जायज मांग किया कर
जो बीके-बेचे बाजार
कैसे तुझे समझाएं
यही विदेसी संस्कार
घर जाय के नबाब दिख
यहाँ चला रिक्शा
घाट-घाट पर बदल रुख
यूज़ अपनी शिक्षा
क्या खोया क्या पाया
किसके हाथ क्या आया
सोच शोक से क्या होय
गर यह सब है माया
वजूद तेरा क्या है
चिंता की भूख
जिंदगी है गन्ना चूस
चबा चबा के थूक ।
--
विवेक शर्मा
(२ ० १ २ )
आते हैं परदेश
झुग्गी-झौंपड़ी में रहते हैं
पर कहते उसे विशेष
उदासी चाहे दिल में हो
फोन पे कौन सुनाये
दूर के दर्द दिखाई के
हम पूछें क्या उपाय
अंग्रेजी चाहे आती हो
पर गैहुआं अपना रंग
सोचा छूटेगा जाती-भेद
पर गैहुआं अपना रंग
थाली भर का खाया पर
पेट रहा खाली
तड़का पूरा मारा पर
स्वाद रहा फाकी
माटी से यह कैसा मोह
माटी है माटी
गाँव में भूखे सो
धूल ही थी चाटी
जवानी बीती फुर्ती से
बुड़ापा कलंक
न गाँव न घराती हैं
एकलो सत्संग
आड़े-तिरछे हो कर हम
आते हैं परदेश
जीवन भर मेहनत कर
पाते हैं क्लेश
महँगा यहाँ डाक्टर है
बिजी हैं माय सन
दुनिया भर के कर्जों का
टेक इस इजी माय सन
कौन रहा वहाँ पर है
तेरा जहाँ यहाँ पर है
पर माटी करे पुकार
पर माटी करे दुलार
माटी तो माँ सी है
गोद में ले बिठाए
चाहे कैसे हों दुःख-दोष
पल में दे भुलाए
जीकर के फ़ौरन में
क्या पाए तूने सुख
गर देश में रहता
चुगता वहाँ भी दुःख
दुःख मानवीय दशा है
कुर्ता पहनो चाहे कोट
खानी होंगी चोट पे चोट
फ्रेंची पहनो चाहे लंगोट
दूर के ढोल सुहावने
दूर से फूहड़ लगे हूर
प्रतिबिम्ब कैसे देखें
अक्खियों में है धूड़
अकल आई देर से
बुड्डा हुआ बुद्धा
विदेशी ठाठ त्याग के
काठ पर बैठा
ज्ञान बड़ा घाघ है
ज्ञान से रहियो सतर्क
अच्छे खासे तर्क दे
करदे स्वर्ग - नरक
लगाये पावडर क्रीम पर
रंग बदले न ढंग
कब चूने से नहाये के
हूर बनयो बदरंक
हल्दी के रंग और स्वाद से
पीछा कैसे छुड़ाय
जे जेनेटिक रोग-दोष
जनम से मिल जाए
विलायती खा, विलायती पी,
चाहे विलायती से ब्याह जा,
पर जब माटी पुकारे अंत काल
वापिस गाँव-घर आ जा
ज्यादा नौस्टेलजिक करेगी
खाएगी चपेड़
दिन भर ताना-बाना बुना
न रात में उधेड़
बेटा जिद न किया कर
समझाकर हम हैं अलग
नागरिक हैं हम भी बेशक
पर गैहुआं अपना रंग
जायज मांग किया कर
जो बीके-बेचे बाजार
कैसे तुझे समझाएं
यही विदेसी संस्कार
घर जाय के नबाब दिख
यहाँ चला रिक्शा
घाट-घाट पर बदल रुख
यूज़ अपनी शिक्षा
क्या खोया क्या पाया
किसके हाथ क्या आया
सोच शोक से क्या होय
गर यह सब है माया
वजूद तेरा क्या है
चिंता की भूख
जिंदगी है गन्ना चूस
चबा चबा के थूक ।
--
विवेक शर्मा
(२ ० १ २ )