विदेशी क्या जानते हैं हिमाचल प्रदेश के बारे में?
- डॉ. विवेक शर्मा
दोस्तों! पिछले सात वर्षों में मैं अमरीकी, फ्रेंच, चीनी, तुर्क, ईरानी, स्वीड, जर्मन, रूसी, डच, कोरियन, अफ्रीकी और अर्जेंटीनी नागरिकों का साथ उठता-बैठता रहा हूँ | जब उनसे पहली बार मिलते हुए जब अपना परिचय देता हूँ, तो वे अकसर पूछते हैं कि यह हिमाचल है कहाँ? फ़िर शुरू होता है सिलसिला भारत का नक्षा चित्रिक करके कश्मीर, तिब्बत, पंजाब और दिल्ली के दक्षिण, पश्चिम, पूर्व और उत्तर में हिमाचल दिखाने का | अगर कहूँ कि हिमाचल हिमालय में है, तो उनको माउंट अवेरेस्ट और नेपाल दिखाई देता है | पर अगर कहूँ यह वह प्रदेश है जहाँ दलाई लामा ने शरण ली है, तो कई लोग कह उठते हैं: अच्छा "धरमशाला" के पास | फ़िर सिलसिला चलता है उनको पहाडों की ऊंचाई, नदियों और बंधों के नाम गिनाने का, और यह बताने का कि हिमाचल देवभूमि है | बात निकलती है तो बर्फ का, पर्यटन का जिक्र होता है | फसलों और फासलों का ज़िक्र होता है | हमारी प्रगति और पिछडेपन का ज़िक्र होता है | ऐसी अनेकों वार्तालापों का निचोड़ आपके समक्ष प्रस्तुत कर रहा हूँ, यह सोच कर कि इस सवाल-जवाब से मैंने जो समझा-सीखा वो शायद हमारे प्रदेश की प्रगति के प्रति उठाये जाने वाले कदमों का मार्गदर्शक बनेगा |
हम कहते हैं कि हिमाचल भारत का स्विट्जरलैंड है | यह कहाँ तक सच है? अगर प्राकृतिक सौंदर्य की बात कि जाए, तो हिमालय की भव्यता की तुलना किसी भी पहाडी इलाके से नहीं की जा सकती | परन्तु जिस प्रकार खान से निकला हुआ हीरा जोहरी की कोशिश के बिना बेकार पत्थर-सा, बेनाम रहता है, जैसे बिना आभूषण, वस्त्र, संवारने-संवारने के बिना किसी स्त्री का रूप अदृश्य रहता है, बिना सही व्यवस्था और कोशिश के हिमाचल का स्विट्जरलैंड सा बन पाना लगभग असंभव है |
स्विस लोग समय के बहुत पाबन्द होते हैं | बस अगर पाँच बज कर बारह मिनट पे आएगी कहा हो, तो ज़्यादा से ज़्यादा २0-३० सैकिंड ही लेट होती है | सड़कें हर साल ध्वस्त नहीं होती, पुल नदी के साथ नहीं बहते, और लोग यहाँ-तहां कूड़ा नहीं फैंकते | जगह-जगह शौचालय और मूत्रालय बने होते हैं | आप इसे एक बुरा नज़रियाँ या उदाहरण कह सकते हैं, पर यह शौलाचय सड़क किनारे बने तकरीबन सभी डाभों से ज्यादा साफ़ सुथरे होते हैं | कभी भी बस लठयानी, घुमारवीं, भराडीघाट, संवारा, भोटा, स्वारघाट में रूकती है, हमारी अदूरदर्शिता एक के बाद एक दुकानों-मकानों की ओट में बिखरी नज़र आती है | अमरीका में हर रेस्तरां, हर "ढाबे", हर बस स्टाप पर साफ़ सुथरे मूत्रालय बने होते हैं | माना बीस-तीस साल पहले पहाडों में शौचालय होते ही नहीं थे, पर अब हम प्रगति के मुकाम चड़ने की बात करते हैं, परन्तु मूलभूत ज़रूरतों को अनदेखा कर देते हैं | यूँ तो कानून बना कर हर ढाबे, हर रेस्तरां में व्यवस्था करवाई जा सकती है, परन्तु हमें ख़ुद ऐसी समस्याओं को पहचान कर उनका समाधान ढूँढना चाहिए |
कभी कभार मुझे भारत और हिमाचल में घूमे हुए विदेशियों से मिलकर पता चलता है कि वो हमारे देश में हमसे ज्यादा घूम चुके हैं | यहाँ संस्कृत में रूचि लेने वाले बुद्धिजीवियों कि कमी नहीं | महाभारत, रामायण, कालिदास के पद्य, कबीर के दोहे, भगवद गीता के अनुवाद, गांधीजी कि आत्मकथा, रश्दी के नावेल, योग से ले कर तिबेत्तियों के ऊपर हुए चीनी अत्याचारों से अवगत लोगों से जब मैं बात करता हूँ, तो सोचता हूँ कि हमरे देश-प्रदेश में आदि ग्रंथों से ले कर समकालीन साहित्य के प्रति कितनी अरुचि, कितना अनादर है | मेरे विदेशी मित्र पूछते हैं कि हमारे प्रदेश में विश्वविद्यालय तो है, परन्तु विश्व पटल पर छाप छोड़ने वाला शोध यहाँ क्यूँ नहीं होता, कोई साहित्यकार, कलाकार, खिलाड़ी रास्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर नज़र क्यूँ नहीं आते ? किसी भी संस्थान के विश्व प्रसिद्ध बनने के लिए आवश्यक है कि प्राध्यापक और विद्यार्थी दोनों सहयोग से, निष्ठा से प्रतिदिन, प्रतिवर्ष महनत करें | मेरे विदेशी मित्रों के अनुसार हिमाचल की शान्ति और रोज़मर्रा की गति शिक्षा और शोध संस्थानों के लिए उपयुक्त है | मेरा मानना है कि शायद हमारे आत्मविश्वास की कमीं है, कुछ प्रयास की कमीं है, कि देश के सबसे ज्यादा पड़े-लिखे लोग जहाँ बसते हैं, वह देश में ज्ञानियों का कर्मस्थल नहीं माना जाता | कहाँ हमारे सभी पूर्वज सत्य और साधना के लिए हिमालय चडा करते थे, कहाँ हम हिमालय कि गोद में बैठे, अपनी ही संभावनाओं से अपरिचित हैं |
देखा जाए तो हिमाचल में फल-फूल, कन्द-मूल, जडी-बूटियों का भण्डार है | पर हम न इन्हें अच्छी तरह पहचान पाये हैं, न इनका पूरा फ़ायदा उठा पाये हैं | सरकार ने भार्यसक प्रयास किया है, और पर्यटन, परिवहन और किसानों के लिए काफ़ी सुविधाएँ उपलब्ध भी करवाई हैं | परन्तु प्रयटक स्थलों कि सफाई, रेस्तराओं में खाने का स्वाद, पगडंडियों की मरमत, मंदिरों का रख-रखाव, संस्थानों में शोध, कला-विज्ञान-खेल में अभिरुचि और अभिव्यक्ति, समय की पाबन्दी, सुलभ शौचालयों और कूड़ाघरों का प्रयोजन, इतियादी हम नागरिकों के निश्चय और प्रयत्न के बिना असाध्य लक्ष्य ही रहेंगे | शायद बंदरों के बड़ते प्रकोप का इलाज़ बंदरों के संघार में है, और यदि आप रामायण पड़ चुके हैं, तो याद कीजिये कि कैसे उसमें श्रीराम भी आतंकी वानरों, जानवरों को मारने से पीछे नहीं हटते थे | नैना देवी जैसे हादसे रोकना, और ऐसा हादसा हो सकता है सोच पाना हम सबके लिए एक चुनौती है | कोई बाहर से आकर क्यूँ हमारी स्तिथि का जायजा ले हमें बताये कि क्या और कैसे करना चाहिए? हम क्यूँ न स्वविश्लेशन करके, स्वार्थों को भुला कर, स्वालंबी बन कर, स्वयमेव ही समस्याएँ सुलझा लें? मेरा हमीरपुर (और अन्य) इन्जिनीरिंग कालेज, हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय के सभी विद्यार्थियों, शिक्षकों, समाज सेवकों, पञ्च-प्रधानों से निवेधन यही है की वो आस और प्रयास समितियां बनायें, जो हमारे गावों, कस्बों, विद्यालयों, मंदिरों में परिवर्तन लायें |
शायद अपने प्रदेश से बहिर निकल कर में अपने प्रदेश को ज्यादा समझ पाया हूँ | हमारे राज्य में सुख है, शान्ति है, और असीम सौंदर्य है | यादों के झुरमुट में मद्रे का स्वाद, बंदरों की छेड़-छाड़, सेबों का रंग, चूल्हे की रोटी, बटुरु, चिलरू, मंदिरों की घंटियाँ, नदियों का ठंडा पानी, झूलती चील की शाखें, सडकों के अनगिनत मोड़ हैं | यादों के झुरमुट में बसे पहाडी भाई-बहन हैं, जिनका परिश्रम, सादगी, श्रधा, इमानदारी मेरे जैसे सभी प्रवासी हिमाचलियों के लिए निरंतर एक मिठास, एक संतोष, एक प्रेरणा का साधन रहती है | जब यही बातें मैं हिमाचल में घूमे हुए विदेशियों से कहता हूँ तो वह मुस्करा कर कहते हैं कि जो सुकून उन्हें हिमाचलियों के चहरों पर नज़र आया, वो उनको शायद कहीं भी देखने को नहीं मिला | पर जैसे अपने सबसे प्रिय पुत्र से पिता सदैव सर्वोच्च प्रदर्शन की उम्मीद करता है, ठीक वैसे ही अपने घर-ग्राम-प्रदेश की ओर नज़र दौडाता हूँ, तो काफ़ी-कुछ बदलना चाहता हूँ | जानता हूँ छोटी-बड़ी मुश्किलें हैं, मुसीबतें हैं, जिनका हल करना शायद मुश्किल नहीं | परन्तु "उद्यमेन ही सिध्यन्ति, कार्याणि न मनोरथैः " | इसलिए पहले समस्याओं को पहचान कर, उनको समझ कर, हमें वो कदम उठाने होंगे जिससे हमारे प्रदेश से निकला हर युवक-युवती जब कहे की वह हिमाचली है, तो देखने वाले को सादा और इमानदार व्यक्ति ही नहीं, बल्कि एक प्रगतिशील, प्रतिभाशाली समुदाय नज़र आए |
डॉ. विवेक शर्मा एम आई टी, अमेरिका में शोध कर रहे हैं और हिन्दी-अंग्रेज़ी में कवितायें-लेख लिखते हैं |
English and Hindi poetry & prose, published as well as unpublished, experimental writing. Book reviews, essays, translations, my views about the world and world literature, religion, politics economics and India. Formerly titled "random thoughts of a chaotic being" (2004-2013). A short intro to my work: https://www.youtube.com/watch?v=CQRBanekNAo
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1 comment:
Vivek Bai aapka writeUp padha or pahadon ki yaad aa gayee.main himachal se Jayada door nahin phir bhi esa lagata hai ki meri aatma vahin kahin basi hai. vahan ka birth hai mera or vahin marna chahta hoon per usase pahale main bhi aap ki hi tarah himachal ke liye kaphi kuch karna chahta hoon Aap jaise aache or Padhe likhe logon per himachal ko naaz hai
Jai hind Jai himachal
sumeet
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