Recently (8 March 2009) I got the opportunity to recite at Shaam-e-shauq, an evening of Hindi/Urdu poetry organized at Monkey Town, New York. I was the featured Hindi poet with three prominent Urdu/Pakistani poets: Humaira Rahman, Altaf Tirmizi & Raees Warsi. While the four poets, (including me) recited our original verses, the event, organzied by Geetanjali Mittal, also featured recitals of Ghalib & Bachchan poems by her, and recital of Dinkar and Ghalib by Nichshaya Khera. The audience included engineers, bankers, poetry enthusiasts from not only Indian and Pakistani origin, but also from other cultures, including Americans dressed in colorful sarees.
The following poem was written specially for Holi and recited there...
मेरे संग आओ, मनावेंगे होली
- डॉ. विवेक शर्मा
मुठ्ठी में भरकर रंग चले हैं
आज सारे गालों पर कैनवस धरे हैं
. कोई गुलाब है, कोई सहेली,
. इंतज़ार में है, कोई युवती अकेली,
सतरंगी हिलोर में बहकते चले हैं,
तन कहकहों से भीगते चले हैं,
. वहाँ मेरे अपने, कितने रंगों में रसें हैं,
. यहाँ हम गुलाली बादलों के प्यासे हैं,
मेरे दोस्तों, हम भी बनावेंगे टोली,
मेरे संग आओ, मनावेंगे होली |
बचपन में यारों मैं निर्बल बड़ा था,
होली के एक दिन कीचड़ में पड़ा था,
. गुबार आँखों में, होठों पे हाय,
. मिट्टी हुआ था, मेरा रंग हाय,
फिर पांच दोस्त कूदे मेरे पीछे,
उस दुष्ट को भी लिए घसीटे,
कीचड़ से लिपथे कमल हम हंसें थे,
अपनी माटी से महके, सहोदर जंचे थे,
. बचपने के उन्ही लम्हों के सहारे लड़ा हूँ,
. फिर उसी मिट्टी से चिपटने को आकुल बड़ा हूँ
पर आज विदेश में भी, बनावेंगे टोली,
मेरे संग आओ, मनावेंगे होली |
यौवन में पहला प्रेम पनपा था,
गालों को छूने का ज़ज्बा पैना था,
. बड़ी तरकीब से, पिचकारी लेकर,
. गया मैं बहुरंगा, उस पंखुड़ी के घर,
दोस्त की मोटरसाईकिल, कितने गुब्बारे फटे थे,
कुछ भांग की महिमा थी, उसको पुकारे चले थे,
बेपरवाह लपक थी, मेरे जुस्तजू में,
बस एक झलक भर की आरजू में,
गुलाल माथे पर, बसंत की पूनम,
सुहागन स्वपन बने, फिर बने विगोयगन,
. फिर तुम आई, मेरे हाथ में मेहँदी लगी हथेली,
. नवरस लिए मेरे घर-आँगन की सिंदूरी सहेली,
यारों, मिलेगा तुम्हें भी हमजोली,
मेरे संग आओ, मनावेंगे होली |
हर प्रांत हरिण्यकश्यपों से आक्रांत पड़ा है,
पर हर भक्त प्रहलाद देखो, शांत खड़ा है,
. होलिकाएं ज़ुल्मियों की खाख होगीं एक दिन,
. हम नर सिंह बनेंगे, हमारे नाखूनों में साख होगी एक दिन,
अधरम अगर है क्रिया घमंडी शाषणों की,
चली आ रही रीत कबसे परिवर्तनों की,
भस्म ही कर, सारी शंकाएँ मिटा कर,
लाल, नीला, हरा, केसरी उत्साह सजा कर
चलें हम भी रंगीले, मल्हार ले कर,
हाथों में शरारत, ठंडी फुहार ले कर,
. कोई रंग का हो, हो अलग या सुवर्ण अंगी,
. आज होंगे सभी मटमैले संग, भंगी, बहुरंगी,
बुरा न मनाओ, है आज त्यौहार होली,
मेरे संग आओ, मनावेंगे होली |
छिड़क दो संदल तिलक, अगरबत्ती रजनीगंधा,
गालों से हटा दो, चिहन हर शरद, निष्ठुर मौसम का,
. गले से लगाकर मित्रगण, परिजन, हरिजन, महाजन,
. हर मुहल्ले को सजा दो, बना दो सुहागन,
फिर भर लो फसलें, कनक बर्तनों में,
पतंगों को आकाश की तितलियाँ बना दो,
बने त्यौहार हर देश में सतरंगा, तिरंगा,
चलती रहे प्रजा के मुक्तबोध की परंपरा,
एक घूँट दो मुझे उस ठंडाई का,
मुझपर छिड़क दो, रंग अमराई का,
. धूल दो, गुलाल दो, चहेता गाल दो,
. हर साल नई आशाओं का गुलाल दो,
रंजिशें भुला कर, बना कर के टोली,
मेरे संग आओ, मनावेंगे होली |
6 comments:
From sulekha.com
Vivek Sharma posted 9 hrs ago
Shukriya Dr Priya, Best wishes to your family as well
Ji Rashmiji, Holi is more than just a festival of colors indeed!
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drpriya005 posted 12 hrs ago
Vivekji,
Bhai Wah.....Bahut accha likha hai...!Happy Holito u & ur family.
Priya
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rashmimehra posted 12 hrs ago
Beautiful poem. Litrelly contains all the colours and 'ras' of holi, as it takes us thru various stages of one's life.
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From Divya Himachal
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Avnish Katoch says:
March 10, 2009 at 2:14 am
विवेक जी,
वैसे तो आपको मालूम ही है प्रदेश में होली के रंग अपने देश की याद बड़ी सताते हैं
परन्तु आपकी कविता और इतने रंगीन भरे शब्दों ने जो रंग भरा दिल में,
की वो बचपन के दिन और वो होली की यादें ताजा तरीन हो गयीं.
धन्यवाद!
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Raman Sharma says:
March 10, 2009 at 12:35 pm
very nice poem!! mazza aa gaya..
meri taraf se sabhi ko Holi ke dher saari Shubhkamnaye.
Rang daalo phenko gulaal, o bolo sa ra ra ra… :)
Thanks for the colorful poem. So apt for today :)
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