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Tuesday, September 29, 2009

Jab ishq tumhein ho jaayega (Not that Ghazal, but something else)

In the following composition, the rules of Ghazal are followed to the extent that I have the right rhyme scheme, there is repetition, as well as  word before the repeated phrase rhymes. I have my own name in the last couplet, and each couplet is complete in itself. The introductory couplet is done right as well. Yet, the following is not a Ghazal, for it is not the cry of dying deer to its beloved. It is a farce (unless you believe that tragedy is itself an avatar of farce). I will like to be surprised one day by Jagjit Singh singing some of these lines in the concert. (joote lekar mujhko maarne aaoge/ jab mujhsa jagjit ho jaayega).

बोलोगे नहीं तुतलाओगे, जब इश्क तुम्हें हो जाएगा |
हर रोज़ दाड़ी बनाओगे, जब इश्क तुम्हें हो जाएगा |

देओद्रन्त लगाना सीख लोगे, सुबह शाम नहाना सीख लोगे,
धोबी पर पैसे गवाओगे, जब इश्क तुम्हें हो जाएगा |

फ़िल्मी डाइलोग दोहराओगे, मंदिरों के चक्कर लगाओगे,
गरबा-भंगरा नाच पाओगे, जब इश्क तुम्हें हो जाएगा |

कांटएक्ट लेन्सेस खरीदोगे, बाल काले करालोगे,
 दीवारों-दर से टकराओगे, जब इश्क तुम्हें हो जायेगा |

एसटीडी और इन्टरनेट कैफे वाले, चाटवाले, रिक्शेवाले,
हर वाले से बहुत बतियाओगे,  जब इश्क तुम्हें हो जाएगा  |

त्याग दोगे बीड़ी-पान-क्रिकेट, कंघी को रखोगे निकट,
जूते पालिश करवाओगे, जब इश्क तुम्हें हो जाएगा |

दुनिया भर के फासले, भेद, भ्रम, विवेक, विवेचना और करम,
सब समझकर भूल जाओगे, जब इश्क तुम्हें हो जाएगा |

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