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Sunday, May 22, 2011

De adhron ka poorn smarpan / दे अधरों का पूर्ण समर्पण


दे अधरों का पूर्ण समर्पण 
विवेक शर्मा |

संकोच की हर सांझ बीती, अतृप्त रही, एकाकी रही,
तृष्णा में घाट गयी और मटकी न भर पाई कभी,
पदचापों का संगीत सुना, केवल स्वर न सुलझा पाई,
कामनाएं अंतर्मन में उभरी, पर वहम हुआ, भय रहा,
कर आई हूँ निश्चय, आज जयघोष पायेगा मेरा अराधन,
आज न कोई अंकुश लगा, दे अधरों का पूर्ण समर्पण |

सीमाओं में रही आजीवन, सागर को खोजती फिरी,
रीतियों की सूची को रट कर, प्रीति दबाती रही,
गुपचुप श्रृंगार किया, अंग-अंग का सौंदर्य निहारा,
भ्रमर ही न मधुपान-पिपासु, पुष्प भी परम रसिक है,
मेरे पुष्पित अंग-अंग का कर चूम-चूम कर अभिनन्दन, 
आज न कोई अंकुश लगा, दे अधरों का पूर्ण समर्पण |

कटाक्ष की बाधा, कुटुंब के बंधन, प्रतिदिन के आकर्षण-क्रंदन, 
तपस्वी की राह चली, सब बंधन त्याग, मैं विमुक्त होकर,
जानती हूँ देव मिलेगा सर्वस्व तज, अहम् की आहुति देकर,
परित्याग आई भ्रान्ति, भ्रम, भय, संशय, संयम, संकोच, 
अराध्य की पूर्ण स्तुति हेतु कर रही हूँ आत्मसमर्पण ,  
आज न कोई अंकुश लगा, दे अधरों का पूर्ण समर्पण |

आत्मघाती पतंगे उड़-उड़ कर क्यूँ ज्योति का आहार बनें?
विद्रोह करुँगी मैं -- क्यूँ मेरी कामनाएं मंझधार में डूबें, मिटें? 
चिरकाल से भारत में प्रेम पिपासा ही नहीं, मधुपान भी है,
यहाँ संयमी की क्षुधा का ही नहीं, सम्भोग का सम्मान भी है,
प्रणय-प्रेम आधार बना ही तो हुआ श्रृष्टि का सृजन, 
आज न कोई अंकुश लगा, दे अधरों का पूर्ण समर्पण |

मार्च 2011

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