डकार तक नहीं मारते
डकार तक नहीं मारते यह नेतागण, इनके फन फैले हैं इतने कि जनता
डरती, मरती, बस भारती जाती है इनके प्यालों में रक्त और धन,
पुरखे कहते थे, यथा राजा, तथा प्रजा, पर उनको क्या था पता,
कि हम अपनों में से हमेशा रावण और हरिन्यकश्यप चुन-चुन कर,
कि हम अपनों में से हमेशा रावण और हरिन्यकश्यप चुन-चुन कर,
बिठाएँगे सत्ता के महत्वपूर्ण आसनों पर|
पर डकार तक नहीं मारते, जबकि भोपाल झुलसे जाते हैं, बिखरे जाते हैं,
अब राजा भोज कि नगरी में जाओ, तो वैसे भी कहाँ धर्म, कर्म से रहा मोह है,
या तो हर कोई नेवला है, या सर्प, या गोह, या मात्र मूषक है, हाँ चूहा है,
या तो हर कोई नेवला है, या सर्प, या गोह, या मात्र मूषक है, हाँ चूहा है,
हाँ चूहों की भरमार है, इन चूहों को बस झूठन, सड़न, छिटपुट से प्यार है,
और मरते हैं चूहों की मौत तो मरते हैं, पर क्यूँ विषहीन, विकृत नागों के आहार बनते हैं?
अपने जने हैं यह नेता सभी, जो डकार भी नहीं मारते,
अपने जने हैं यह नेता सभी, जो डकार भी नहीं मारते,
और बस निगलते जा रहे हैं, नदियाँ, सडकें, पशु-आहार, धातुएं, फसलें, कंचन,
और हम हैं कि बैठे हैं धरे हाथ पर हाथ, किसी अवतार के लिए आतुर,
किसी महापुरुष की पीठ पर बैठकर, उस गांधी की मूर्तियाँ बना कर
पंछियों की बीट से सजा-सजा कर अपना सच्ची कृतज्ञता दिखाने को आतुर |
(यह एक लम्बी कविता श्रृंखला की एक कड़ी है |)
(Posted in support of the anti-corruption campaign in India...)
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