यार बेरंगी बनायी इस बार होली,
न माँ, न पिता, न बहन-भाई, भतीजे,
न माटी से उठते धूल-धूसरित किस्से,
न मंदिर की घंटी, न महफ़िल, न छुट्टी,
न गुलाल मला, न पिचकारी मारी
न गालों पर रगड़ी आहें, निगाहें
न शोर-गुल था, न हल्ला-मोहल्ला,
बस पुराने दिनों की धुंधली चुनौती,
साहिब जी के माथे पर सिर्फ तिलक
चंचला के ठहाके और धक्-धक् धक्-धक्
मोड़ पर भांग-भरी ठंडाई, पकौड़े,
चौक पर चौकन्ने पुलसिये, छिछोरे
अब बस पुराने दिनों की धुंधली चुनौती,
कौन साल था वो कीचड़ से लथपथ
बेसुध नाले में पड़ौसी का नौकर
वो कौन घर से भागी थी रंगी स्यार-सी
क्या लोकगीत की पंक्ति थी मुझे याद-सी
अब बस पुराने दिनों की धुंधली चुनौती
वो जलती होलिका और विस्मित बच्चे
बाप ह्रिन्यकश्यप हुआ तो? सोचते बच्चे
प्रहलाद-सी अच्छाई तब भी कहाँ थी
रंग-भंग के भुलावे में तब भी जान थी
अब बस पुराने दिनों की धुंधली चुनौती
विदेशी है जीवन यादें, आहें है देसी
क्या चाव से आज हर बात होती
थके आते शाम को नहाते देर तक
नदियों में भी आज इन्द्रधनुष बसते
अब बस पुराने दिनों की धुंधली चुनौती,
वसंत की उमंग और प्रीत के सब रंग
लालिमा शर्म की, सनेह की, सनक की,
कालिख लिए मव्वाली छुपकर बैठे
घर में नजरबन्द नवविधवा और बेटे,
दूर पुराने दिनों की धुंधली चुनौती,
हर वर्ष नया हाथ, नया ढंग, नया रंग,
हर पर्व से ऊंचा हास्य, प्रीत, हड़कंप,
रंगों की रौनक तिलस्मी उपचार-सी
हर लेती खुश्कियाँ, रुष्टियाँ फुहार-सी
अब बस पुराने दिनों की धुंधली चुनौती
न गालों पर रगड़ी आहें, निगाहें
न शोर-गुल था, न हल्ला-मोहल्ला,
बस पुराने दिनों की धुंधली चुनौती,
साहिब जी के माथे पर सिर्फ तिलक
चंचला के ठहाके और धक्-धक् धक्-धक्
मोड़ पर भांग-भरी ठंडाई, पकौड़े,
चौक पर चौकन्ने पुलसिये, छिछोरे
अब बस पुराने दिनों की धुंधली चुनौती,
कौन साल था वो कीचड़ से लथपथ
बेसुध नाले में पड़ौसी का नौकर
वो कौन घर से भागी थी रंगी स्यार-सी
क्या लोकगीत की पंक्ति थी मुझे याद-सी
अब बस पुराने दिनों की धुंधली चुनौती
वो जलती होलिका और विस्मित बच्चे
बाप ह्रिन्यकश्यप हुआ तो? सोचते बच्चे
प्रहलाद-सी अच्छाई तब भी कहाँ थी
रंग-भंग के भुलावे में तब भी जान थी
अब बस पुराने दिनों की धुंधली चुनौती
विदेशी है जीवन यादें, आहें है देसी
क्या चाव से आज हर बात होती
थके आते शाम को नहाते देर तक
नदियों में भी आज इन्द्रधनुष बसते
अब बस पुराने दिनों की धुंधली चुनौती,
वसंत की उमंग और प्रीत के सब रंग
लालिमा शर्म की, सनेह की, सनक की,
कालिख लिए मव्वाली छुपकर बैठे
घर में नजरबन्द नवविधवा और बेटे,
दूर पुराने दिनों की धुंधली चुनौती,
हर वर्ष नया हाथ, नया ढंग, नया रंग,
हर पर्व से ऊंचा हास्य, प्रीत, हड़कंप,
रंगों की रौनक तिलस्मी उपचार-सी
हर लेती खुश्कियाँ, रुष्टियाँ फुहार-सी
अब बस पुराने दिनों की धुंधली चुनौती
विवेक शर्मा
मार्च २०१३
1 comment:
Hi Vivek,
Read your review about Maila Aanchal of Renu.
Was surprised to find that person like you are there who have kept the Hindi Literature alive in the age of Ipad, Burger and consumerism.
Have been an ardent reader of Hindi literature but was disappointed of not find any comment from you on the famous and one of the best and first Satire of Hindi Literature which is Raag Darbaari by Srilal Shukla.
Would recommend you to read and it would be great to have your review about the same.
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