प्रगति विद्युत से है, विद्युत बाँध से है,
विद्युत से प्रकाश है, प्रकाश में बैठे तुम लिखते हो
क्यूँ बाँध में आतंक देखा करते हो?
क्या वैज्ञानिक, अभियंता-इंजीनियर बाबु ग्यानी नहीं?
बाँध निर्माताओं-कंट्राक्टटरों, इंजीनियर बाबुओं के प्रणेता
कोई और नहीं, चुनाव के चूर्ण जो समाजसेवी नेता हैं,
उनको भी अपनी जनता, जन्मभूमि का चेता है,
प्रगति विद्युत से है, विद्युत बाँध से है,
पर कवि तुम क्यूँ प्रगति में हलाहल देखा करते हो?
कहूँ, क्यूँ मुझसे कवि-बुद्धिजीवी
समस्याओं का व्याख्यान करते हैं,
उन्हें सुलझाने का प्रयास करते हैं?
ज्ञान आये अध्ययन, मनन, चिंतन, तपस से,
प्राण-प्रेरणा, अंतरात्मा की उपज से,
और हम सीख सकते हैं अतीत से, दूसरों की
आपबीती से, वैज्ञानिकों की रीती से ।
कहूँ, क्यूँ कवि भविष्यफल का तर्क दे
या भूत की कथनी का आह्वान कर,
दूसरों के लिए सही-गलत गुनते हैं?
कवि की कृति - पुरुष और प्रकृति, हृदय और मति,
लोकनृत्य और संस्कृति, भविष्यदृष्टि और स्मृति -
की है एक झलकी, धुन, खनक, मूर्ति, सूक्ति, संवाद-सी
जो देख, कह, सोच, सुन, गा न पाए कोई
वह अक्षरों और सुरों में बिंध जाए कवि ।
हाँ सुना हमने भी पुरखों से कुछ ऐसा ही है कवि,
पर वाल्मीकि की दिव्य-दृष्टि कहाँ कलयुग में पनपेगी,
वाद छोड़ो, प्रकृति-पुरुष की सोचो,
प्रगति की सोचो, विद्युत बाँध से है,
कवि तुम क्यूँ प्रगति में हलाहल देखा करते हो?
सोचो मित्र, सरकार, नेता कर रहे हैं इतना व्यय
तो बाँधों में लाभों का पुलिंदा होगा,
सरकार ने सब कुछ सोचा होगा
क्या तुम क्या स्वयं को सही,
उन्हें असक्षम समझते हो?
तुम बस बैठे बैठे मुद्दे कुरेदा करते हो,
प्रगति में दुर्गति डकेला करते हो
कहो कैसे इन परिवर्तनों की,
तकनिकी बारीकियों की बाते समझते हो?
या ऐंवें ही, प्रगति में हलाहल देखा करते हो?
**
5.
मेरी बात सुनो,
मैं वैज्ञानिक-गति का चिंतक,
निःस्वार्थ सत्य-दृष्टा, सजग,
मानवीय ज्ञान का महासागर,
तुम्हारी अंतरात्मा में बसा
महामुनि हूँ ।
मैं हर पहलु को परखता हूँ, पहाड़ों की नींव,
नदी के बदलते तीर, चट्टानों की चपलता,
वर्षा के सारे आंकड़े, भूगर्भीय दरारें, दर्द,
दबाब, द्रव्य, और भ्रष्टाचार की आय,
सम्पूर्ण मानवता की तकनिकी शिक्षा,
भौतिकी और पदार्थ विज्ञान के ज्ञान के दम पर,
निःस्वार्थ लेखनी, कृति के स्वाभिमान के उद्यम पर,
मैं शुभचिंतक, महामुनी करता हूँ आंकलन
तो इन पहाड़ी प्रान्तों की धमनियों पर बंधते
मानवीय अदूरदर्शिता के स्मारकों से डूबे हुए
बिलासपुरों से पलायन करते हुए क्षुब्ध,
भूमिहीन कृषकों से स्वयं को एक मत पाता हूँ,
जल के बल, थल के नीचे की हलचल,
और नदियों में बड़ते मानवीय हलालाल
और कर्मों से उत्पन्न होने वाले क्षय और प्रलय
के भय से
अपने को खिन्न, चिंतित, आकुल, आशंकित,
असहयोगी, विवश, विद्रोही-सा पाता हूँ,
प्रगति, उन्नति, समृद्धि का गान
मैं भी सुनाता हूँ, पर कुछ विकल्पों को,
डगमग या अनभिज्ञ नीति, स्वार्थी,
संकीर्ण या भ्रष्ट राजनीति के संकल्पों को,
प्रान्त, जन्मभूमि, धरा के प्रति,
पूर्वजों, प्रियजनों, आनेवाली पीड़ियों के प्रति
संभवतः हानिकारक, अहितकारी क्रिया-कल्पों को,
विवेक की कसौटी पर रखता हूँ,
सृष्टि की सुख-शांति के लिए अनुचित
आचरण, विचारण को तजता हूँ
और छेड़ कर तार सभी भावनाओं के,
मस्तिष्क की संभावनाओं के,
जन-जन के उत्थान, मुस्कान,
मोक्ष के लिए उपयुक्त विकल्प चुनता हूँ |
मेरी बात सुनो,
मैं वैज्ञानिक-गति का चिंतक,
निःस्वार्थ सत्य-दृष्टा, सजग,
मानवीय ज्ञान का महासागर,
तुम्हारी अंतरात्मा में बसा
महामुनि हूँ ।
**
6.
हिमाचल, हिमालय का सौंदर्य मात्र चोटियों में नहीं
उसकी घाटियों और वादियों में है
उसके जंगलों, मंदिरों, निवासियों से है
घाटियों में घर हैं, घरों में स्वपन और घाव हैं
फाके और चाव हैं, कूलें, चूल्हे और गाँव हैं
और मध्य तेजधार, रफ़्तार, होशियार नदी
बलखाती, मुड़ती, फिर मुड़ती, नदी
यह थम गयी तो मिट जायेगी सारी वनस्पति,
घाट भी, घराट भी, और मानव समाज भी,
और फिर न कोई अराधन, कोई समाधि जल को
ला पाएगी भागीरथी के रूप में धरातल को,