नदी, बाँध, बाड़ और कवि
1.
हिमाचल, हिमालय का सौंदर्य मात्र चोटियों में नहीं
उसकी घाटियों और वादियों में है
उसके जंगलों, मंदिरों, निवासियों से है
घाटियों में घर हैं, घरों में स्वपन और घाव हैं
फाके और चाव हैं, कूलें, चूल्हे और गाँव हैं
और मध्य तेजधार, रफ़्तार, होशियार नदी
बलखाती, मुड़ती, फिर मुड़ती, नदी
नदी चली रचती, चुनती आकृतियाँ उस स्मृति की
जो बरसे, बहते जल से कहे, जा तेरी राह सही
नदी नाद वाली, संवाद वाली, दादा की दाद वाली
चावल के खेत वाली, बजरी और रेत वाली
नदी देवों के वरदान वाली,
जन्म और शमशान वाली
भैंसों के जमघट वाली,
बाट वाली, घाट और घराट वाली
और यह क्या भव्य भवन-सा उठ रहा उसके हृदय में,
रुद्ध कर रहा उसका स्वर, जो चट्टानें
बिखरा देती थी उसकी उन्मुक्त लहर
अब मौन
क्यूँ है?
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2.
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2.
डूब गयी हर घाटी,
बाँध दीया गति को कैसे, मानव की यह मति है कैसे
अब कहाँ से आये और जाए किधर, पूछे नदी
क्यूँ, किसी व्यक्ति से कैसे?
डूब गयी हर घाटी,
और हर बाँध के आगे नदी सूखी-सी
क्षीण-सी चली, बादल तक भटक गए,
और धरातल के गर्भ के भीतर दरारें,
दरारों में आये हैं हलचल के उपक्रम नए,
पहाड़ों के देवों तक में जागे हैं अब भय, भाव नए,
डूब गयी हर घाटी,
लो निंगल ले गया बाँध जंगल,
आया अब अप्राकृतिक सरोवर,
लीन, जलमगन यादों के मधुवन,
अब विद्युत अद्भुत चमकेगी दूर
और जुगनू सारे संशय में हैं,
पक्षी, पशु अनकहे भय में हैं |
***
3.
किस समृधि क्या ध्यान धरते हो मित्र,
कैसे निर्मित करते हो संभावनाओं का चलचित्र,
कैसे जानते हो कि नदी नहीं प्रहार करेगी,
अपनी प्रकृति से स्वयं अपने अधिकार का
**
5.
मेरी बात सुनो,
मैं वैज्ञानिक-गति का चिंतक,
निःस्वार्थ सत्य-दृष्टा, सजग,
मानवीय ज्ञान का महासागर,
तुम्हारी अंतरात्मा में बसा
महामुनि हूँ ।
**
क्यूँ नहीं वह हलचल से, भूकंपन से, बाड़ की आड़ में,
क्यूँ नहीं वह अपनी धमनियों के रोड़ों का उपचार करेगी ?
***
4.
पर कवि तुम क्यूँ प्रगति में हलाहल देखा करते हो?
प्रगति विद्युत से है, विद्युत बाँध से है,
विद्युत से प्रकाश है, प्रकाश में बैठे तुम लिखते हो
क्यूँ बाँध में आतंक देखा करते हो?
क्यूँ बाँध में आतंक देखा करते हो?
क्या वैज्ञानिक, अभियंता-इंजीनियर बाबु ग्यानी नहीं?
बाँध निर्माताओं-कंट्राक्टटरों, इंजीनियर बाबुओं के प्रणेता
बाँध निर्माताओं-कंट्राक्टटरों, इंजीनियर बाबुओं के प्रणेता
कोई और नहीं, चुनाव के चूर्ण जो समाजसेवी नेता हैं,
उनको भी अपनी जनता, जन्मभूमि का चेता है,
प्रगति विद्युत से है, विद्युत बाँध से है,
प्रगति विद्युत से है, विद्युत बाँध से है,
पर कवि तुम क्यूँ प्रगति में हलाहल देखा करते हो?
कहूँ, क्यूँ मुझसे कवि-बुद्धिजीवी
समस्याओं का व्याख्यान करते हैं,
उन्हें सुलझाने का प्रयास करते हैं?
समस्याओं का व्याख्यान करते हैं,
उन्हें सुलझाने का प्रयास करते हैं?
ज्ञान आये अध्ययन, मनन, चिंतन, तपस से,
प्राण-प्रेरणा, अंतरात्मा की उपज से,
और हम सीख सकते हैं अतीत से, दूसरों की
आपबीती से, वैज्ञानिकों की रीती से ।
कहूँ, क्यूँ कवि भविष्यफल का तर्क दे
या भूत की कथनी का आह्वान कर,
या भूत की कथनी का आह्वान कर,
दूसरों के लिए सही-गलत गुनते हैं?
कवि की कृति - पुरुष और प्रकृति, हृदय और मति,
लोकनृत्य और संस्कृति, भविष्यदृष्टि और स्मृति -
की है एक झलकी, धुन, खनक, मूर्ति, सूक्ति, संवाद-सी
जो देख, कह, सोच, सुन, गा न पाए कोई
वह अक्षरों और सुरों में बिंध जाए कवि ।
हाँ सुना हमने भी पुरखों से कुछ ऐसा ही है कवि,
पर वाल्मीकि की दिव्य-दृष्टि कहाँ कलयुग में पनपेगी,
वाद छोड़ो, प्रकृति-पुरुष की सोचो,
प्रगति की सोचो, विद्युत बाँध से है,
प्रगति की सोचो, विद्युत बाँध से है,
कवि तुम क्यूँ प्रगति में हलाहल देखा करते हो?
सोचो मित्र, सरकार, नेता कर रहे हैं इतना व्यय
तो बाँधों में लाभों का पुलिंदा होगा,
सरकार ने सब कुछ सोचा होगा
क्या तुम क्या स्वयं को सही,
उन्हें असक्षम समझते हो?
तुम बस बैठे बैठे मुद्दे कुरेदा करते हो,
प्रगति में दुर्गति डकेला करते हो
कहो कैसे इन परिवर्तनों की,
तकनिकी बारीकियों की बाते समझते हो?
या ऐंवें ही, प्रगति में हलाहल देखा करते हो?
या ऐंवें ही, प्रगति में हलाहल देखा करते हो?
**
5.
मेरी बात सुनो,
मैं वैज्ञानिक-गति का चिंतक,
निःस्वार्थ सत्य-दृष्टा, सजग,
मानवीय ज्ञान का महासागर,
तुम्हारी अंतरात्मा में बसा
महामुनि हूँ ।
मैं वैज्ञानिक-गति का चिंतक,
निःस्वार्थ सत्य-दृष्टा, सजग,
मानवीय ज्ञान का महासागर,
तुम्हारी अंतरात्मा में बसा
महामुनि हूँ ।
मैं हर पहलु को परखता हूँ, पहाड़ों की नींव,
नदी के बदलते तीर, चट्टानों की चपलता,
वर्षा के सारे आंकड़े, भूगर्भीय दरारें, दर्द,
दबाब, द्रव्य, और भ्रष्टाचार की आय,
सम्पूर्ण मानवता की तकनिकी शिक्षा,
भौतिकी और पदार्थ विज्ञान के ज्ञान के दम पर,
निःस्वार्थ लेखनी, कृति के स्वाभिमान के उद्यम पर,
मैं शुभचिंतक, महामुनी करता हूँ आंकलन
तो इन पहाड़ी प्रान्तों की धमनियों पर बंधते
मानवीय अदूरदर्शिता के स्मारकों से डूबे हुए
बिलासपुरों से पलायन करते हुए क्षुब्ध,
भूमिहीन कृषकों से स्वयं को एक मत पाता हूँ,
जल के बल, थल के नीचे की हलचल,
और नदियों में बड़ते मानवीय हलालाल
और कर्मों से उत्पन्न होने वाले क्षय और प्रलय
के भय से
अपने को खिन्न, चिंतित, आकुल, आशंकित,
असहयोगी, विवश, विद्रोही-सा पाता हूँ,
प्रगति, उन्नति, समृद्धि का गान
मैं भी सुनाता हूँ, पर कुछ विकल्पों को,
डगमग या अनभिज्ञ नीति, स्वार्थी,
संकीर्ण या भ्रष्ट राजनीति के संकल्पों को,
प्रान्त, जन्मभूमि, धरा के प्रति,
पूर्वजों, प्रियजनों, आनेवाली पीड़ियों के प्रति
संभवतः हानिकारक, अहितकारी क्रिया-कल्पों को,
विवेक की कसौटी पर रखता हूँ,
सृष्टि की सुख-शांति के लिए अनुचित
आचरण, विचारण को तजता हूँ
और छेड़ कर तार सभी भावनाओं के,
मस्तिष्क की संभावनाओं के,
जन-जन के उत्थान, मुस्कान,
मोक्ष के लिए उपयुक्त विकल्प चुनता हूँ |
मेरी बात सुनो,
मैं वैज्ञानिक-गति का चिंतक,
निःस्वार्थ सत्य-दृष्टा, सजग,
मानवीय ज्ञान का महासागर,
तुम्हारी अंतरात्मा में बसा
महामुनि हूँ ।
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6.
हिमाचल, हिमालय का सौंदर्य मात्र चोटियों में नहीं
उसकी घाटियों और वादियों में है
उसके जंगलों, मंदिरों, निवासियों से है
घाटियों में घर हैं, घरों में स्वपन और घाव हैं
फाके और चाव हैं, कूलें, चूल्हे और गाँव हैं
और मध्य तेजधार, रफ़्तार, होशियार नदी
बलखाती, मुड़ती, फिर मुड़ती, नदी
यह थम गयी तो मिट जायेगी सारी वनस्पति,
घाट भी, घराट भी, और मानव समाज भी,
और फिर न कोई अराधन, कोई समाधि जल को
ला पाएगी भागीरथी के रूप में धरातल को,
है
कहीं बची
श्रधा जो मनुपुत्र को दिशा देगी?
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(2011 में विवेक शर्मा रचित अधूरी कविता पर अनूप सेठी जी और अवनीश कटोच जी की टिप्पणियों का आभारी हूँ )
3 comments:
A poem (kavita) I started writing years ago after I started thinking about how many dams were being constructed on the rivers in Himachal (& in Uttrakhand & other hill states). I think someday we will come to recognize that by damming the rivers, we damned the vital fluid in our veins. I hope in the aftermath of massive floods, the state and central governments will take a sincere stock of the irreversible damage done by the indiscriminate construction of small and large hydroelectric power plants and artificial lakes throughout our hill states. {The poem is still work in progress for it is impossible to work on this poem for just thinking about the ill-conceived dams causes me real distress... I thank Anup Sethi ji and Avnish Katoch ji for their comments on a rawer 2011 version.}
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