“परिश्रम तेरे बाएँ हाथ में, तो सफलता तेरे दायें हाथ में”
बात कहना आसान होता है, अंजाम देना मुश्किल. बात हिमाचली विद्यार्थियों की कर रहा हूँ, इसलिए अब सब सन्दर्भ, अब उदाहरण हमारे प्रदेश के अनुकूल ही दूंगा. यूं तो कोई भी पर्वत चढ़ना आसान नहीं, पर लक्ष्य अगर एवरेस्ट की चोटी हो, सर्वोपर्री हो, तो तैयारी से लेकर विजय तक परिश्रम भी सर्वाधिक करना पड़ता है. जिसने बचपन से जवानी तक, कभी पहाड़ देखे ही नहीं, उसके लिए पहाड़ चढ़ पाना बहुत मुश्किल होगा. कहने का तात्पर्य यह है कि जीवन में सफलता पाना पहाड़ चढ़ने की तरह एक मुश्किल काम है. न सिर्फ़ चाह चाहिए, बलकी वर्षों में परिश्रित परिश्रमी की लगन, और भरसक प्रयास चाहिए. सभी बहाने भुला के, सभी विपदाओं का शोर अनदेखा करके, अपनी कुछ तुत्छ इच्छायें दबा के, जब नित्य कुछ घँटे आप मेहनत करेंगे तो सफलता की सम्भावना है. संभावना है, क्यूंकि है निश्चित कुछ भी नहीं.
“तू कर यत्न भी तो मिल नहीं सकती सफलता, यह उदय होती लिए कुछ, ध्येय नयनों के निलय में”
हरिवँश राय बच्चन जी हिन्दी भाषा के प्रमुख कवियों में से एक है, और उल्लेखित पंक्ति उनकी कविता “बाट की पहचान” से ली गयी है. कविता की पहली दो पंक्तियों पर ध्यान दीजिये: “पूर्व चलने के बटोही, बाट की पहचान करले”. सफलता, चाहे वो इम्तिहान में हो, या अभियान में, उनके हाथ लगती है, जो सफलता के लिए ज़रूरी ज़ज्बा रखते हों. पहले चाह चाहिए, फ़िर राह चाहिए. एक बार ध्येय निश्चित कर लिया, तो जान लिया जाना कहाँ है. एक श्लोक है संस्कृत में, जो बुजुर्ग लोग अकसर कहा करते है: ” उद्यमेन ही सिद्धयन्ति, कार्याणि न मनोरथैः/ न ही सुप्तस्य सिंहस्य, प्रविशन्ति मुखे मृगः” सो जान लीजिये, लक्ष्य निर्धारित करने के बाद, ९९ प्रतिशत समय परिश्रम में जाता है. रास्ते बहुत है, पर मंजिल पर वही पहुँचते है जो चलते चले जाते है. बच्चन जी ने “मधुशाला” में एक रुबाई कही है:
“मदिरालेय जाने को घर से, चलता है पीनेवाला
किस पथ जाऊँ असमंजस में सोच रहा भोलाभाला
अलग अलग पथ बतलाते सब, पर मैं बतलाता हूँ
राह पकड़ कर एक चला चल, पा जाएगा मधुशाला”
हमारे हिमाचल में शिक्षा और शिक्षक भारत के अनेकों प्रदेशों के मुकाबले बहुत उच्च कोटी के है. परन्तु फ़िर भी राष्ट्रीय स्तर कि सभी परीक्षाओं में हमारे विद्यार्थी दूसरे प्रदेशों के मुकाबले पिछडे हुए हैं. आखिर क्यों? मुख्यतः यह परिश्रम की कमी का ही नतीजा है. अगर किसी को समझाने बैठता हूँ, तो हजारों बहानों की लिस्ट सुनने को मिलती है. सच्चाई यह है की आई. आई. टी. या आई. ए. एस. या आई. आई. एम. के लिए डट कर, मिट कर, झपट के मेहनत और भरपूर ज़ज्बा, लगन, आत्मविश्वास और प्रेरणा चाहिए. एक स्तर के बाद, सभी सक्षम होते हैं. क्षमता हर इंसान में निहित है परन्तु सिर्फ़ तेज़ दिमाग होना किसी परीक्षा में सफलता कि गारेन्टी नहीं. यह बात हर स्तर पर, हर तरह के खेल, फन, कला, शिक्षा,राजनीति, व्यवसाय, हर क्षत्र में लागू होती है. अच्छा गला होना गायक नहीं बनाता, उसके लिए सालों रियाज़ करना पड़ता है, किसी गुरु के पास साधना करनी पड़ती है, एकाग्र होना पड़ता है. गांगुली-सा बैट्समैन बनना हो, तो बचपन से ही रोज़ प्रयास, रोज़ व्यायाम करने पड़ते है. टीम से निकले जाने पर भी हिम्मत खोये बिना दुबारा अपने होंसले और परिणामों के बलबूते पर टीम में वापिस आना होता है.
तेज़ दिमाग है मेरे भाई, तो फ़िर ६० प्रतिशत ही क्यों ला पाते हो? अच्छा खेलते हो, तो स्कूल टीम में क्यों नहीं? हिसाब अच्छा करते हो, पर कभी शत प्रतिशत लो ला नहीं पाये? ९० और १०० में क्या फरक होता है? बताता हूँ: ९० घर बैठता है, १०० अच्छी नौकरी पाता है. परिश्रम और उससे मिलने वाली सफलता सिर्फ़ अंकों से ज़ाहिर नहीं होते. यह एक आदत होती है, जिसको बचपन से डालना पड़ता है. जीवन में करिश्मे नहीं होते, सिर्फ़ फिल्मों में होते हैं, या कहानियो में. जितना गुड़ डालोगे, खीर उतनी ही मीठी होगी. आपने अगर रामधारी सिंह दिनकर जी कि रश्मिरथी नहीं पड़ी है, तो ढूँढ के उसका अध्ययन कीजिये. प्रेरणा का असीम सागर है वह. अगर आप आपने को ग्यानी कहते हैं, दार्शनिक समझते हैं, सफल गिनते हैं, और आपने अपने कवियों को नहीं जाना है, आप आपने देश-प्रदेश के इतिहास, रस्मों से वाकिफ नहीं, आपको राजनीति का ध्यान नहीं, आपको अपने धर्म में रूचि नहीं, और अगर आपको सही-ग़लत का पता नहीं, आपके मन में शंकाएँ नहीं, वहम नहीं, हृदय में स्वपन नहीं, मति में गति नहीं, यदि आप सोचते हैं कि आप किसी काबिल है, पर साहस नहीं, निश्चय नहीं, अगर आप में वन्वासों और युद्धों में लड़ कर अपने सिंघासन पाने कि क्षमता नहीं, तो आप उन अन्पढ, जाहिल लोगों से बदतर है, जिनके पास यह सब कर पाने का साधन नहीं. सीखने के लिए हर बड़ा, वृद्ध गुरु है, जिसने जीवन से सीखा है, उसकी सीख पुस्तकों की सीख से ज्यादा लाभकारी है. शिक्षित होना और पढ़ना आना अलग चीज़ें हैं. शिक्षित रहने के लिए आजीवन सीखते रहना पड़ता है.
“गति प्रबल पैरों में भरी,
फिर क्यों रहूँ में दर दर खड़ा,
जब मेरे सामने है आज,
रास्ता इतना पड़ा,
जब तक न मंजिल पा सकूं,
तब तक न मुझे विराम है,
चलना हमारा काम है.”
शिवमंगल सिंह सुमन की बहुत अच्छी कविता है, जिसमें प्रेरणा रस कूट कूट के भरा है. इससे भी याद करियेगा. साथ ही “करत करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान,/ रसरी आवत जावत ते, सिल पर पड़त निशान” पर गौर फमाइयेगा. देखिये, मैं बहुत साल से अपने दोस्तों, पडोसियों, रिश्तेदारों से इन मुद्दों पर बात कर चुका हूँ. मुझसे पूछा जाता है की बेटा तुम बच्चों को सलाह दो. कहता हूँ, बेटा नित्य लगन से प्रयत्न करो. लोग समझते है कि मैं उनको उल्लू बना रहा हूँ. कहा जाता है, कि बेटा इनमें तुम जितना दिमाग नहीं है. माना सबकी मति एक जिनती कुशाग्र नहीं, परन्तु आपकी जो भी क्षमता है, उसका पूरा उपयोग भी तभी होगा न, अगर आप पूरी लगन से मेहनत करें. सभी लोग यह कह कर कि वह इतने विदुषी नहीं सरल राह अपनाते है, और आजीवन पछताते हैं. मैं हर दिन हजारों चीज़ें करने कि कोशिश करता हूँ, और इसीलिए कुछ-कुछ चीज़ें करने में सफल भी होता हूँ. सुबह जल्दी उठना पड़ता है, खेलने और टी वी देखने का समय नियंत्रित करना पड़ता है, अपनी कामनायों को वश में रखना पड़ता है, और साथ ही, चाहे स्तिथि परिस्तिथि कैसी भी हो, पूरी श्रद्धा और सच्चाई से परिश्रम करना पड़ता है. यही बातें एक ही सूक्ति में कही जा सकती थी; (अंत में आएगी) उसको याद रखिये, उसपर अमल करिये, और आपको आपकी हर कोशिश के लिए मेरी शुभकामनाएं, मेरा आशीष देते हुए, में इस लेख को यहीं समाप्त करता हूँ. (अंग्रेज़ी टाइपिंग में कुछ शब्द बहुत प्रयास के बाद भी ग़लत ही छपते हैं, उनके लिए क्षमाप्रार्थी हूँ).
“काक चेष्ठा, बको ध्यानम्, श्वान निन्द्रा तथैव च
अल्पहारी, गृहत्यागी, विद्यार्थी एतः पंच लक्षणम् ”
- विवेक शर्मा
विद्यार्थियों के प्रति
विवेक शर्मा
English and Hindi poetry & prose, published as well as unpublished, experimental writing. Book reviews, essays, translations, my views about the world and world literature, religion, politics economics and India. Formerly titled "random thoughts of a chaotic being" (2004-2013). A short intro to my work: https://www.youtube.com/watch?v=CQRBanekNAo
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2 comments:
Response from Himachal.us
Avnish on December 7th, 2007 7:33 pm Vivek Ji,
Its a lesson for us also, I wish kids in HP and other parts can read this wonderful article and learn. However back in HP we are still living without Internet and there was big talk by many big people to bring newsletters and print editions but all got lost as every one has their own agendas, but at the end of the day our goal is to provide whatever best we can and I would request those who keep sitting at one corner and keep thinking lets see when they fall to come forward and take articles and other messages we bring like these forward for future generations. After all are part of society and as I said many times, a society which is spoiled would spoil no matter how high you sit!
Vivek Sharma on December 8th, 2007 3:37 pm Avnishji,
Once we know a problem exists, we can figure out ways of addressing it. The idea is to stay focussed, and see how impediments can be cleared out. We can perhaps start syndicating artciles to Panjab Kesari, Jansatta, Amar Ujala, Tribune, and other newspapers, and that can ensure that our word reaches the masses. Before that we need to build a credibility, and a sustained quality: something himachal.us has managed only for last one year. The rate at which this effort has grown is very promising, even if it is not earthshattering.
The ideas expressed here will percolate to masses slowly, but surely. The ideas and ideals are neither new nor original. Yet we tend to let situations and laziness bog us down. In pursuit of sucess, there are only two certainities: calamaties, and the need for determined, focussed, quality effort.
Thanks Vivek ji, this was quite inspirational.
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